SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 654
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PUR तापमेया टीका-'तरुण तस्मयादि । ना. गार तम्ग पालनाररस्य अपमत पःआध्यात्मिगिन्तित. माणितः पारितो मनागा. गाय मापयत, अहो ! खलु द्रौपदी देवी रूपेग या मेन र पनि पारिनुपद्धामनी मा नो आद्रियते यावत् नो पर्युपास्ते, तस्मा र पल मम द्रौपया दव्या'शि पिय फरित्तए' पिमिप फर्नु , पायकग काममानामा विवाहिता जाता -तपण तस्स कान्लनारपस्म प्रत्यादि। टीकार्थ-(तण्ण) उसके पाद (नम्न कच्चरलनाग्यम्स) उन कन्टल नारदको (इमेयारे) यर दस सअशस्थिय, चिनिए, पत्थिए, मणी गए, सरुप्पे समुपज्जित्या) आ यात्मिक, चिन्तित, प्राधित, मनोगत सकल्प उत्पन्न हुआ। (महोण दोनईदची ख्वेग जाव लावण्णेग य पचहि पडवेहिं अणुपद्धा समाणी मम णो आहाड, जार नो पन्जुवासह त सेय खलु मम दोवईए देवीए रितिर फरित त्ति कटु ण्व सपेहेह। सपेहित्ता पहराय आपुच्छह आपुचिमत्ता उप्पणि विज्ज आवाहइ आवाहिता ताए उक्किहा जाब विग्जाहरगई। लपणसमुह मझ मज्झेण पुरत्याभिमुहे वीइवहउ पयत्ते याचि होत्या) देखो-यह कितने आश्चर्य की बात है कि द्रौपदी देवी ने रूप यावत् लावण्य से पाचा पाडवों के साथ भोगासक्त घनकर मेरा कोई आदर नहीं किया है यावत् किसी भी प्रकार की पर्युपासना नहीं की है। इसलिये अब मुझे यही उचित- श्रेयस्कर है कि मै इस द्रौपदी देवी का विप्रिय कर-अनिष्टकर तएण तस्स कच्छुहनारयरस इत्यादि ॥ सार्थ-(तएण ) त्या२५छी ( तास कच्छल्लनारयस्स) छुट नाहने ( इमेयारूने) PAL तन (अन्झथिए, चितिए, पथिए, मणोगए, सकप्प समुष्पज्जित्था ) माध्यामिर, वितित, प्रार्थित, मनात १४८५ सय 3 (अहोण दोबई देवी स्वेण जाव लावण्णेण य पचहिं पडवेहिं अणुबद्धा समाणी मम णो आढाइ, जाव नो पज्जुवासइ त सेय खलु मम दोवईए देनाए विप्पिय करित्तए ति कट्ठ एव सपेदेइ, सपेहिता पडुराय आपुच्छइ आपुच्छिता उप्पयणि विज्ज आवाहेइ जावारिता ताए उकिटाए जाव विनाहरगई लग समुद्द मज्झ मज्झेग पुरत्याभिमुहे वीइवइउ पयत्ते याविहोत्था) જુઓ, આ કેવી નવાઈની વાત છે કે દ્રૌપદી દેવીએ રૂપ યાવત્ લાવ યથી પાચે પાડવાની સાથે ભેગા થઈને મારે કોઈ પણ રીતે આદર કર્યો નથી થાવત્ કઈ પણ જાતની પથુપાસના કરી નથી એથી હવે મને એ જ ગ્ય જણાય છે કે ગમે તે રીતે દ્રૌપદીનું વિ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy