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________________ - --- - ममगारधामृतवपिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् वीराः पुरुषास्त्रैलोक्ये बलवन्त नेमिनायापेक्षया तेपाम् , 'आमतेऊण त भगवई' आमन्य-प्रयुज्य ता भगवती-विद्या, कीदृशीं विद्यामित्याह-' पक्कमणि' प्रक्र मणी-मकृष्टगमनशक्ति शालिनी 'गगणगमणदन्छ' गगनगमनदक्षाम् आकाशे गमने समर्थाम् 'उप्पडओ' उत्पतितः, गगनमभिलड्डयन् उड्डीय गमनेनाकाशतलमुल्वयन 'गामागरनगरनिगमखेडवडमडवदोणमुहपट्टणासमसवाइसहस्समडिय' ग्रामावर नगरनिगमखेटमटमडबद्रोणमुग्वपत्तनाश्रमसवादसहस्रमण्डित, तर अष्टादशकरग्राह्यो ग्रामः, आकरः स्वर्गाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकर नगर, निगम-वणिग्ग्राम खेटधूलीपकार कट-कुत्सितनगर, यत्र योजनान्तराले ग्रामादिनास्ति तन्मडम्प यत्र जल. स्थलमार्गाभ्या, भाण्डान्यागच्छति तद् द्रोणमुख, पत्तनं द्वधा-जल्पत्तन स्थलपत्तन, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहति स संवाह एतैः सहस्रमण्डित, स्तिमितमेदिनीतल, 'वमुह' वसुधा भूमि 'ओलोइतो' अलोकयन पश्यन् रम्य हस्ति नापुर नगरमुपागतः पाण्डुराजभवनेऽतिवेगेन समुपेता गगनादवतीर्ण इत्यर्थः ! तत सलु स पाण्डराजा कच्छुल्लनारय' च्छुल्लनारदम् आगच्छन्त पश्यति-दृष्ट्वा पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्याच देव्यासाधमासनादम्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय दशाह थे उनके ये सदा चित्त के विक्षेप कारक बने रहते थे। गमन में विशिष्ट शक्ति प्रदान करने वाली एच आकाश में उठाकर ले चलने वाली उस भगवती प्रक्रमणी विद्या को प्रयुक्त करके ये आकाश में उड़ा करते थे। ये नारद, गमन से आकशतल को उल्लघन करते हुए ग्राम, आकर, नगर, निगम खेट, कट, मडंय, द्रोणमुख, पत्तन, सयाद इनके सहस्रों से महित हुई ऐसी स्तिमितमेदनीतलवाली वसुधा-भूमि को देखते हुए रम्य हस्तिनापुर नगर में आये और चा से गगनमार्ग से होकर फिर ये पाइराज के भवन में पहुंचे। ऐसा सध यहां लगाना (तएणं से पैडराया कच्छुल्लनारय एज्जमाणं पासइ) इम के बोद पाडुराजा ने कच्छुल्ल इन नारद को आते हुए जब देखा ( पामित्ता) तो ગમનમા વિશિષ્ટ શક્તિ આપનારી અને આકાશમાં ઉડાડીને લઈ જનાર તે પગવતી પ્રક્રમણી વિદ્યાના બળથી તેઓ આકાશમાં ઉડતા રહેતા હતા આ રીતે આ નાદ ગમનથી આકાશને ઓળગીને સહસ્ત્રો ગ્રામ, આકર નગર, નિગમ ખેટ કર્બટ, મડબ, દ્રોણુમુખ, પત્તન, બાહથી, મડિત અને સ્વિમિત પૃથ્વીને જેતા મણીય હસ્તિનાપુર નગરમાં આવ્યા અને ત્યાથી આકાશ भाभा यधने पाना सवनमा ५४ाया (तएण से पाडुराया कच्छल्ल नारय एजमाण पासइ) त्या२मा पाइशोधनाने यारे मारता नया (पासिता) त्यारे लेने (पचहिं पडवेदि कुतीए देवीए सद्धि आसणाओ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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