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________________ - -- नमगारधर्मामृतषिणी टीका अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४५५ वीराः पुरुषास्त्रैलोक्ये वलयन्त नेमिनाथापेक्षया तेपाम् , 'आमतेऊण त भगवई' आमन्य-प्रयुज्य ता भगवती-विद्या, कीदृशीं विद्यामित्त्याह-'पकमणि' प्रक मणी अकृष्टगमनशक्ति शालिनी 'गगणगमणदच्छ' गगनगमनदक्षाम् आकाशे गमने समर्थाम् 'उप्पडओ' उत्पतितः, गगनमभिलवयन् उड्डीय गमनेनाकाशतलमुल्हयन् 'गामागरनगरनिगमखेडाघडमडवदोणमुहपट्टणासमसवाहसहस्समडिय' ग्रामावर नगरनिगमखेटानटमडपद्रोणमुखपत्तनाश्रमसवाहसहस्रमण्डित, तत्र अष्टादशकरग्राह्यो ग्रामः, आफरः स्वर्गाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकरं नगर, निगम वणिग्ग्राम खेटधूलीपकार,कट-कुत्सितनगर, यत्र योजनान्तराले ग्रामादिनास्ति तन्मडम्ब यत्र जर स्थलमार्गाभ्या, भाण्डान्यागच्छति तत् द्रोणमुख, पत्तनन्द्वधा-जलपत्तन स्थलपत्तन, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहति स सवाह एतैः सहस्रमण्डित, स्तिमितमेदिनीतल, 'वह' वसुधा भूमि 'ओलोइतो' अवलोकयन् पश्यन् रम्य हस्ति नापुर नगरमुपागत' पाण्डराजभवनेऽतिवेगेन समुपेतः गगनादवतीर्ण इत्यर्थः । तत सलु स पाण्डुराजा कच्छुल्लनारय ' च्छुल्लनारदम् आगच्छन्त पश्यति-दृष्ट्वा पञ्चभि पाण्डवैः कुन्त्याच देव्यासार्धमासनादम्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय दशाह थे उनके ये सदा चित्त के विक्षेप कारक बने रहते थे। गमन में विशिष्ट शक्ति प्रदान करने वाली ण्व आकाश में उठाकर ले चलने वाली उस भगवती प्रक्रमणी विद्या को प्रयुक्त करके ये आकाश में उड़ा करते थे। ये नारद, गमन से आकशतल को उल्लघन करते हुए ग्राम, आकर, नगर, निगम खेट, कर्षट, मडव, द्रोणमुख, पत्तन, सबाह इनके सहस्रों से महित हुई ऐसी स्तिमितमेदनीतलवाली वसुधा-भूमि को देखते हुए रम्य हस्तिनापुर नगर में आये और वहा से गगनमार्ग से होकर फिर ये पाडुराज के भवन में पहुंचे। ऐसा सरध यहां लगाना (तएणं से पंडराया कच्छुल्लनारय एज्जमार्ण पासइ) इम के बोद पाडुराजा ने कच्छुल्ल इन नारद को आते हुए जय देखा (पामित्ता) तो ગમનમાં વિશિષ્ટ શક્તિ આપનારી અને આકાશમાં ઉડાડીને લઈ જનાર તે પગવતી પ્રક્રમણ વિદ્યાના બળથી તેઓ આકાશમાં ઉડતા રહેતા હતા આ રીતે આ નારદ ગમનથી આકાશને ઓળગીને સહસ્ત્રો ગ્રામ, આકર નગર, નિગમ એટ કર્બટ, મડબ, દ્રોણુમુખ, પત્તન,સ બાહોથી, મ ડિત અને સ્વિમિત પૃથ્વીને જોતા મણીય હસ્તિનાપુર નગરમાં આવ્યા અને ત્યાથી આકાશ भागमा २४ने पाहुना सवनमा ५४ाच्या (तएण से पाडुराया कच्छल्ल नारय एज्जमाण पासइ) त्या२६ पासत ना२हने न्यारे भापता नया (पासिता ) त्यारे नन (पचहिं पहवेहि कुवीए देवीए सद्धि आसणाओ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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