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________________ हा अ० ६६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् वाचनान्तरे तु ' व्हाया ' इत्यादि, तथा द्वीपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्र चैत्यवन्दनमभिहित मृते इति, तदप्यत्र पाठे मिद्धान्तविरुद्ध पाठप्रक्षेपसभावनां मद्योतयति । अत्र यद्वाच्य तत्मागेव निगदितम् । मूलम् - तएण तं दोवइरायवरकन्नं अतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसिय करेंति कि ते ? वरपायपत्तणेउरा जाव चेडियाचक्कवालमयहरगविदपरिक्खित्ता अतेउराओ पडिणिक्खमइपडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला जेणेव चाउघटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धि चाउग्धंटं आसरह दुरूहइ, तएण से धट्टज्जुणे कुमारे दोवईए कण्णाए सारत्थं करेइ, तएण सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयर मज्झ मज्झेण जेणेव सयवरमडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता रह ठवेइ रहाओ पञ्च्चोरुहs पच्चरु अभयदेव सूरि ने स्वरचित वृत्ति में जो यह कहा है कि एक वाचना में " जिनपडिमा अञ्चण करेह " दूसरी अन्य वाचना में " व्हाया इत्यादि - तथा द्रौपद्याः प्रणिपात दण्डकमात्र चे चवदनमभिहित सूत्रे इति" सो यह उनका कन इस बात की सभावना को प्रकट करता है कि इस पाठ में सिद्धान्त से विरुद्व पाठ का प्रक्षेप हुआ है । इस विषय में जो कुछ हमें समाधान करना या वह हमने पहिले ही कर दिया है । || द्रौपदी पूजाचर्चा समाप्त ॥ અભયદેવસૂરિએ સ્વરચિત વૃત્તિમા જે એ કહ્યુ છે या " जिनपरिमाण अच्चग करे " जील वायनाभा प्रणिपातदृण्डका चै यत्र दनमभिहित सूने इति । " વાતને પ્રકટ કરે છે કે આ પાઠમા સિ વાન્તથી વિરૂધ્ધ તે થયે છે કરી દીધુ છે આ વિષે જે કઈ ચાગ્ય સ્પષ્ટીકરણ કરવાનુ દ્રૌપદી પૂજા ચર્ચા સમાપ્ત " घर કે એક વાચનામા इत्यादि - तथा द्रोपद्या તેમનુ આ કથન આ એવા પાર્કને પ્રક્ષેપ હતુ તે અમે પહેલા
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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