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________________ समगारधामृत पिणी का अ० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम २७० सरति, निर्गत्य यत्रैव ग्रामाकरनगरेषु अनेकानि राजसहस्राणि, तत्रैवोपागच्छति उपागत्य यानत्-समवसरत, ' समवसरत' इति पर्यन्त दतवाक्य पूर्ववद बोध्यम् । ततः खलु तानि अनेकानि राजसहस्राणि तस्य दतम्यान्तिके एतमर्थ श्रु वा निशम्य हृष्टतुष्टाः सन्तः दूत सत्कारयन्ति-सत्कृत कुर्वन्ति समानयन्ति,सत्कार्य, समान्य प्रतिविमर्जयन्ति । ततः खलु ते वासुदेवप्रमुखा बहुसहस्रसस्यका राजान', प्रत्येकं २ स्नाता: जेणेज गामागर जाव समोसरह) वह दशवां दूत उसी तरह सेपहिले के दूतों के समान कापिल्य नगर से निकला और निकल कर जहां ग्राम आकर और नगर थे-वहां पर अनेक राजसहस्त्रों के पास गया-वहा जाकर शिष्टाचार पूर्वक उसने सब से इस प्रकार कहा कि काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी का स्त्रयवर होने वाला है-सो आपमय लोग द्रुपद राजा के ऊपर कृपा करके जल्दी कांपिल्य पुर नगर पधारे (तएण ताइ अणेगाइ रायसहस्साइ तस्स दयस्स अतिए एयमद्र सोच्चा निसम्म ० त दय सरकारेंति, सक्कारित्ता सम्माति, सम्माणित्ता पडिविसज्जे ति) इस प्रकार वे अनेक सहस्त्र राजा उस दूत के मुख से इस समाचार को सुन कर और उसे अपने अपने २ हृदयों में अवधारित कर हत ही अधिक आनन्द से प्रमुदित बनकर परम सतोप को प्राप्त हुए। उन्होंने उस दून का सत्कार किया सत्कार करके सन्मान किया और सन्मान करके फिर उसे पीछे विसर्जित कर दिया-भेजदिया । (तएण ते वासुदेव पामुक्खा बरवे रायसहस्सा पत्तेय समोसरह ) a शमी त मधानी में पास्य नाथी नीयो भने નીકળીને જ્યાં ગ્રામ આકર અને નગર હતા ત્યા અનેક સહુ રાજાઓની પામે ગમે ત્યાં જઈને નમ્રપણે તેણે સહુને આ પ્રમાણે કહ્યું કે કપિલ્ય નગરમાં દ્રુપદ રાજાની પુત્રી દ્રૌપદીને સ્વય વર થવાનું છે તો આપ સૌ દ્રુપદ ५२ ५॥ उशने अभिपिय नगरमा ५वा (तएण ताइ अगाइ रायसहरसाइ तस्त दूयस्स अतिए ण्यम? सोचा निसम्म हट० त दूर सकारे ति समारित्ता, सम्माणे ति, सम्माणित्ता, पडिसिजे ति ) मा शते સહસ્ત્રો રાજાએ તે દૂતના મુખથી આ સમાચાર સાભળીને અને તેને પિતાના હૃદયમાં ધારણ કરીને ખૂબ જ પ્રસન્ન તેમજ પરમ સંતુષ્ટ થયા તેઓએ દૂતને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું ત્યારપછી તને તેઓએ विहाय आपा (एण वासुदेवसामुमा रहने रायसहस्सा पत्तेय २ वाया
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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