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________________ __ अनगारधर्मामृतवपिणी टी० १० १६ द्रौपदीचरितवर्णनम् २५७ निवेगयति, निवेश्य द्रौपद्या राजवरसन्यायो रूपेण च योवनेन च लापण्येन च 'जायविमए' जातविस्मय आश्चर्य प्राप्तः स द्रुपदो द्रौपदी राजवरकन्या मेवमवादी-हे पुनि ! यस्य खलु अह राज्ञो वा युवराजस्य वा भार्यात्वेन स्वय मेव दास्यामि, तत्र खलु त्व सुखिता वा दुःखिता या भविष्यसि, तत खलु मम जाव जीवाए ' यापज्जीव 'हिययडाहे ' हदयदाहः-मनोदुःख भविष्यति । तएण से दुवए राया दोवड दारिय अके निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए स्वेण य जोवणेण 7 लावण्णेण य जायविम्हए दोबड, रायवरकन्न एच वयासी) सो वह राजवर कन्या द्रौपदी जहा द्रुपद राजा था वहा आई। वहा आकर उसने वदना करने के लिये द्रुपद राजा के घोही दोनों पैरो को पकड़ो कि इतने में उम द्रुपद राजाने उस द्रौपदी दारिका को अपनी गोदमें बैठा लिया। द्रौपदी के बैठते ही वह राजा उस राजवर कन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य से विशेष विस्मित हुआ-सो विस्मित होकर उसने उस राजवर कन्या द्रौपदी से इस प्रकार कहा-(जस्स ण अह पुत्तो! रायस्स वा जुवरायरस वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि,तत्य ण तुमसुहिया वा दृक्खिया वा भवि जासि तएण मम जाव जीवाए हिथयडाहे भविस्मड) हे पुत्रि ! मैं स्वय तुम्ह जिस राजा को, अथवा युवराज को भार्या के रूप में दूंगा वहां तुम सुखी और दुःश्वी दोनो भी हो सकती हो। तो इससे मुझे यावज्जीव हृदय दाह-मानसिक दु.ग्व रहेगा। (त ण अह पुत्ता! से दुवए राया दोवइ दारिय अ के निवेसेइ, निवेसित्ता, दोवईए रायवरकन्नाए स्वेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवइ रायवरकन्न एव पयासी) તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદી જ્યા રાજા દ્રુપદ હતા ત્યા ગઈ ત્યા જઈને તેણે દ્રુપદ રાજાને વદન કરવા માટે બને પગે પકડયા ત્યારે તેઓએ દ્રૌપદી દારિકાને પિતાના ખોળામાં બેસાડી દ્રૌપદી જ્યારે મેળામાં બેસી ગઈ ત્યારે રાજા તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીના રૂપ, યૌવન અને લાવયથી સવિશેષ વિસ્મિત થશે અને વિસ્મિત થઈને તેણે તે રાજવર કન્યા દ્રૌપદીને આ પ્રમાણે કહ્યું – (जरस ण अह पुत्ता! रोयस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सवमेव दुलइस्सामि, तत्थण तुम मुहिया वा दुक्रिया वा भरि जासि तरण मम जाव जीयाए हिय यडाहे भविस्सइ), युति तने शान यु१२४ने मायान। ३५मा આપીશ ત્યા તું સુખી પણ થઈ શકે તેમ છે અને દુખી પણ તેથી મને
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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