SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अगारधर्मामृतपिणी टी० ० १६ औौपदीचरितवर्णनम् २५५ निव्वतारसाहियाए ' निरृचद्वादशाहिकाया = द्वादशेऽहनि समाप्ते इदमेतद्रूप नाम कृतवती यस्मात् ग्वल एषा द्वारिका झुपदस्य राज्ञो ' धृया ' दुहिता- पुनी चुलन्या देव्या ' अत्तिया ' आत्मजा=अगजाता, तस्माद् भरतु खल्वस्माकमस्या दारिकाया नामधेय 'द्रौपदी' इति । ततः खलु तस्या अम्वापितरौ रममेतद्रूप गोणं गुणमाप्त गुणनिष्पन्न = गुणसपन्न, नामधेय कुरुतः। ततः सा द्रोपदी बारिका पञ्चधात्रीभिर्यारद् गिरिकन्दरमालीने चम्पकता निर्वाननिर्व्याघाते सुखसुखेन परिवर्धते स्म | 17 " दारिय पाया तण सा तीसे दारिया निन्वत्तरारसाहियाए इम ण्या रूप गोण गुणणिष्ण नामवेज्ज जम्हाण एस दारिया दुत्रयस्सरण्णो धूया बुलणीए देवीए अन्तया त होउण-अम् इमीसे दारिया नामधिज्जे दोवई ) गर्भ के जब नौ मास अच्छी तरह समाप्त हो चुके तब, चुलनीदेवी ने एक पुत्री को जन्म दिया । पुत्री को उत्पन्न हुए १२ वां दिन लगा-तब चुलनी मानाने उसको इस रूप से गुणनिष्पन्न नामरक्खा क्यों कि यह द्रुपदराजा की पुत्री है और मुझ चुलनी के उदर से उत्पन्न हुई है, इसलिये इस हमारी कन्या को नाम दुपटी रहो इस तरह के विचारसे (तीसे अम्मा पियरो ) माता पिता ने उसका ( इम एयास्व गुण्ण गुणनिफन्न नामघेज्ज करिनि दोवई ) इस तरह का गुणनिष्पन्न नाम द्रौपदी रख दिया । ( तण ) इसके बाद - ( सा दोवई दारिया पचधाह परिगहिया जाव गिरिकदरमल्लीणइव चपगलया निवापनिव्वाघायसि सुह सुहेण परिवडे) वह द्रोपदी द्वारिका पाच घामाताओं से मुक्त देवी नवह माम्राण जाब दोरिय पयाया तपण सा तीसे दारियाए निव्वतवार सोहियाए इम एयारूव गोण गुणणिष्वण्ण नामघेज्ज जम्माण एस दारिया दुवय॑स्स् रणो धूया चूलणीए देवीए अत्तया त होउण अम्ह इमी से दारियार नामधिज्जे दोवई ) गर्सना नवभास क्यारे 'सभ्य समाप्त थया त्यारे ચૂલની દેવીએ એક પુત્રીને જન્મ આપ્યા પુત્રીના લૅન્મ પછી જ્યારે અગિ ચાર દિવસ પૂરા થયા અને મારા ક્વિસ શરૂ થયા ત્યારે ચુલની માતાએ વિચાર કર્યો કે દ્રુપદ રાજાની આ કન્યાપુત્રી છે અને મારા ગર્ભથી જન્મ પામી છે. આ પ્રમાણે આનુ નામ દ્રૌપદી રાખીએ તે સારૂ આમ વિચારીને ( तो से अम्मापयारो) भातापिताओ ' ( इम एयान्व गुण्ण गुणनिफन्न नाम घेज्ज करिति' दोवई ) या ते ते उन्यानु शुशु निष्यन्न नाम द्रीयही पाइयु (तरण ) त्यापडी ( सा दोषई दारिया पंचवाइपरिगदिया जाव गिरिकंदर -- सालीण इव तपगळ्या निवाय निश्वाधाराय यां 1 गली
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy