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________________ अनगार नियपिणी टीका २०६६ सुमारिकापरितवर्णनम् २४३ पुती मामुदारान-अष्टान् भोगान् मुञ्जाना-पुर्वी पश्यति, तत्त्वरणाः मुखमा रिफायण जयमेतरण सत्यमाणग्ररूपः संग्लपिचारः समुत्पद्यत-अहो ! खलु इन सो पग-पूर्वमवे 'पोरागाण' पुरागानाम्-पुराननाना मचिताना कर्मा पुनर्मगा पार कत्तिविशेष मत्लनुगमन्ती विहरति तन्-तस्मात् कारणाद् यदि सलु कोऽप्यस्न नुचरितम्य तपोनिमब्रह्मचयामस्य रल्याण उप्टः गुभरूप , फल्गृत्तिविशेषः अस्ति, 'तो' तर्हि खलु अमपि 'नागमिस्सेण' जागामिना भनरहणेन इमान् एतद्रूपान् उदारान् भोगान् यापद् भुजाना 'विहउस पर चार बोरे। इस तरह से उस सुमारिका आर्या ने उन मडली के पाच पुरुषो के माय उस देवदन्ता गणिका को उदार मनुष्य भव सपन्धी काम भोगों को नोगते हुए देग्या । (तएण तीसे इमेयास्वे सकप्पे मनुपन्जिया-अहो ण इमा इस्यिया पुरा पोराणाण कम्माण जाब विहरह) ता उम सुकुनारिका आर्या को इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न आ-नहो ! इम स्त्री ने पूर्वभव में जो पुण्य कर्म कमाये हैं उन्हीं पुराने पुण्य कर्मों के यारत् फत्ति विशेष को यह भोग रही है । (त जइण केइ इमस्त तुचरियस्ल नव नियमभचेरवासस्त कलाणे फलवित्तिरिसेसे अस्थि तो ण अहमवि आगमिस्संग भवरगहणेण इमेरारूवाइ उसलाइ जार विहानामि, तिकटू नियाण करेड, करिता आयाबगभूमिमी पच्चोल्हइ ) इसलिये यदि इन पालिन तप, नियम एवं ब्रह्मपचे व्रता का कोई शुभरूप फलफ्रात्त विशेय है तो में भी आगामी मब में इसी तरह के उदार मनु य भव सम्धी काम भोगों ઢળ્યા આ રીતે તે સુકુમારિ આર્યોએ મંડળીના પાચે માણસની સાથે તે हेपत्ता पाने २ अनुभ्यसपना अभाग लागवता लेया (तएण तीसे इमेयाहने सकप्पे समुप्पन्जित्या- अहो ण इमा इत्यिया पुरा पोराणाण पम्माण जाव विहरह) त्यारे ते सुधभार मायाने मतना पिया CEભવ્ય કે અહે? આ સ્ત્રીએ પૂર્વભવમા જે પુણ્યકર્મ કર્યા છે તેમને લીધે જ એટલે કે તે જ પૂવ ભવના પુણ્ય-મે ના યાવત ફળવિશેષને આ ભોગવી રહી छ (त जइ ण कैइ इमास सुचरियस दर नियम उभरवासस्म कन्लाणे फट वित्तिविसेसे अस्थि तो ण अहनदि आगमि से ण भरग्गड्गे ण इभेयारूलाइ उरा लाइ जाव विहरितामि, ति कटु नियाण करेइ, फरित्ता आपराव गभूमिओ पच्चोरुहः) मा मा भारा व मायामा मावस त५, नियम भने બ્રહ્મચર્ય વ્રતનુ શુભ ફળ છે તે હું પણ આવતા ભવમાં આ જાતના જ ઉદાર મસબ ધી કામગોને ભેગવુ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેણે નિદાન
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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