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________________ मेनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ सुकुमारिकाच रितवर्णनम् २३७ ब्रह्मचारिणी सा बहुभिश्चतुर्थपप्ठाप्टमभक्तैर्या गत्-तप कर्मभिरात्मान भावयन्ती विहरतिभाम्तेस्म । तनः खलु सा सुकुमारिका आर्या अन्यदा कदाचिद् यत्रैम गोपालिका आर्यास्तायोपागच्छति उपागत्य वन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्यित्वा एपमवादीत् हे आर्या ! इच्छामि खलु युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती चम्पानगर्या वहिः सुभूमिभागस्योद्यानस्यादूरसामन्ते = नातिदूरे नातिनिकटे पष्ठपण्ठेन-पप्ठभक्तानन्तर पुन पष्ठभनतेन ' अणिक्वित्तेण ' अनिप्तेिन =अविश्रान्तेन-अन्तररहितेन, तप.कर्मणा ' सुराभिमुही' सूर्याभिमुग्वी ' या वेमाणो ' आतापयन्ती-आतापना कुर्नती विहर्तुम् ' इति । ततस्तदनन्तर ता गोपालिका आर्याः सुकुमानिकामार्यामेवमनादिपुः-हे आर्ये ! पय स्खलु अमण्यो और नौ कोटी ब्रह्मचर्य से महाव्रत की रक्षा करने लगी। अनेक चतुर्थ, पष्ठ, अष्टम, भक्त आदि तपस्याओं से अपने आपको भावित भी करने लगी। एक दिन की बात है कि वह सुकुमारिका आर्या साध्वी-जा गोपालिका आर्या विराज मान थी वहा गई-(उवागच्छित्ता वइ, नमसह, वदित्ता नमंसित्ता पर वयासी, इच्छामि ण अ. ज्जाओ! तुम्भेहिं अमणुन्नाया समाणी चपाओ वाहिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदर सामते छट्ट छटेण अणिक्खित्ते णं तवोकम्मे ण सरा भिमुही आयावेमाणी विहरित्तए) वहां जाकर उसने उन्हें वदना की, नमस्कार किया' वदना एव नमस्कार कर फिर वह इसप्रकार कहने लगी-हे भगत ! मे आप से आजा प्राप्त कर चपा नगरी से घाहिर सुभूमिभाग नाम के उद्यान के समीप अतररहित छ? छट्र की तपस्या से सूर्याभिमुखी होकर आतापना करना चाहती हैं। (तएण ताओ गोवालियाओ अजाओ सूमालिय एवं चयासी-अम्हेण ચતુથ, વર્ણ, અષ્ટમ ભક્ત વગેરે તપસ્યાઓથી પિતાને ભાવિત પણ કરવા લાગી એક દિવસની વાત છે કે તે સુકુમારિકા આર્યા સાધ્વી જ્યા ગપાલિકા माया विरमान ती त्या 15 (उपगच्छित्ता व दइ, नम सइ, प दित्ता, नमः सिचा एय क्यासी, इच्छामि ण अज्जाओ | तु भेहिं अन्भणुन्नाया समाणी च पाओ वाहिं सुभूमिभागस्त उज्जाणरस अदूरसामते छ? छटेण अणिक्सित्तेणं वो फम्मेण सूराभिमुही आयावेमाणि विहरित्तए) त्या ईन तर तेभने पहनाश નમસ્કાર કર્યા વદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદત ! આપની આજ્ઞા મેળવીને હું ચ પ નગરીમાં બહાર સુભૂમિભાગ નામના ઉદ્યાનની પાસે અતર રહિત છઠ્ઠ છઠ્ઠની તપસ્યા કરતા સૂર્યાભિમુખી થઈને Raivat ४२१ २ छु (तएण ताओ गोवालियाओ अग्जाओ सूमालियं
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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