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________________ १७४ स्थानं ग निवासाध निम्य पा-मन्पराशामार्थस्थानम् , अनममाना २८मा प्नुपती २, 'दढीखडनिसगा' दण्डियष्टनियमना-डि-कनमन्मान जीवना, तस्य सण्ड, तदा निपसन-परिधान यस्पाः सा तया, 'खटमल्लपरखडपडगारक गया' खण्डगल्लफ-सण्डपटरदस्तगतामायण्टमरल मिह शराबण्ड सरपट कर पानायें घटरखण्ड, तद् दय हस्तगत यस्पा सा तथा, 'इटाडाइसीसा' स्फुटिवाड़ाइनशीप-स्फुटित स्फुटितफेश 'डाहरुम् ' बायर्थ शीर्ष शिरो यस्याः सा तथा, रिकीर्णकेशवतीत्यर्थ मच्छिमावडगरेण अभिज्जमाणमग्गा' मालिका चटकरेण अन्वीयमानमार्गा मक्षिकासमूहेन अनुगम्यमानमार्गा शरीरवनादीना मरिनवान् मक्षिकास्तत्पृष्ठतो धारतीत्यर्थः गेह गेहेण देह बलियाए' गृह योग देहपलिकया प्रतिगृह देहनिदिहेतोः उदरपूर्वयमेवेत्यर्थ:-त्ति ' फापेमागी' फलप्यमाना-कुर्वाणा सती विहरति । ततस्तदनन्तर खल वस्या नागश्रिया प्राण्या स्वस्मिन् भवे एव पोडश रोगातहाः मादभूता, तद्यथा-(१) श्वासः, (२) कास , (३) ज्वरः, 'जायढे ' यावत्-कुष्ठम् , (४) दाह , (५) कुक्षिशूलम् , (१) का सामना करती हुई वह कहीं पर भी बैठने के लिये स्थान को, और ठहरनेके लिये-विश्राम करनेके लिये-जगह भी को नही प्राप्त करती फरे हुए जीर्ण वस्त्र के टुकड़े को पहिरे हुए भिक्षा के लिये मिट्टी के खपर को और पानी के लिये फूटे घडे के टुकडे को हाथ में लिये हुए इधर उधर एक घर से दूसरे घर पर उदर पूर्ति के लिये फिरने लगी। इसके शिर के चाल ईधर उधर बिखरे हुए रहते थे। शरीर और वस्त्रादिको के मैले कुचैले होने के कारण मक्षिकाओं का समूह इसके पीछे पीछे २ भागता रहता था। (तएण तीसे नागसिरीए मारणीए तम्भवसि चेक सोलसरोयोयका पाउन्भूया- त जहा सासे कासे जोणिसूले, जाव આવી પરિસ્થિતિને મુકાબલે કરતી કોઈ પણ સ્થાને બેસવાની કે રોકાવાની કે વિશ્રામ કરવાની જગ્યા તે મેળવી શકી નહિ, અને છેવટે ફાટેલા જૂના વસ્ત્રોના કકડાને વીંટાળીને ભિક્ષાના માટે માટીનુ ખપ્પર અને પાણીના માટે ફટી માટલીના કકડાને હાથમાં લઈને પેટ ભરવા માટે આમતેમ એક ઘેરથી બીજે ઘેર ભમવા લાગી તેના માથાના વાળે આમ તેમ અસ્ત વ્યસ્ત રહેતા હતા, શરીર અને વસ્ત્રો વગેરે મેલા હોવાને લીધે માખીઓના ટેળેટેળા તેની પાછળ પાછળ ભમતા રહેતા હતા (तएण तीसे नागसिरीए माहणीए तम्भवसि चेर सोलसरोयायंका पार अध्या-त जहा सासे कासे जोणिस्ले, जाव कोढे तएण सा
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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