SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ माताr नो श्रदधति नो रोचयन्ति नो प्रतियति। ने धन्यस्य-नमा अवश्याना अरोच यन्तः, अमतिगन्न योर नदिफला लागायोपाग उन्ति, उपागत्य तपां नन्दि फलाना मूलानि 7 यात्-कन्दादीनि आहारयन्ति, ताजायागु नविश्राम्यन्ति तेपां खलु आपाते-पूर्व फलमक्षणादिममरे भटक मानिम्मम्पादादिलामोमबति किन्तु 'तो पच्छा' ततः पधातू फलमसणायनन्तर परिणम्यमाना साटिरूपेण मह नो महाति ३ धागस्म एयमह असामाणाणे ते नदिफना तेणेव उवागच्छिति उवागचिता तेसि नदिफलाण मृलाणि य जाम वीसमति, तेसि ण आपाप महा भरड, तओ पच्छा परिणममाणा जाव वररोति एवामेव समणाउरगे! जो अम्हं निग्गयो वा निगगी चा जाच पन्चइए पचतु कामगुणेसु मज्जेड, मनित्ता जार अणुपरिय हिस्सइ जहा वा ते पुरिसा) वहा पर कितनेक पुरुषों ने धन्यसार्थवाह के इस कथन को कि नदिफल वृक्षो के कदमूलादि नहीं साना चाहिये और न उनको आयामें ती विश्राम करना चाहिये अद्वाकी दृष्टि से नहीं देखा उस पर अपनी श्रद्धा नहीं जमाई, उसे अपनी रुचि का प्रतीति का विषय नहीं पनाया-ये पुरप- धन्यसार्थवाह के इस कथन को अश्र द्वेय आदि मानकर जहा पर नदिफल वृक्ष थे- वहा गये वहा जाकर उन्होंने उनके मूल कदादि कों को खाया उनकी छाया में विश्राम किया उस समय उन्हें घड़ा आनन्द आया- स्वाद जन्य कोई अपूर्व सुख मिला -किन्तु जर उनका परिपाक काल आया जब वे खाये हुए मृलकन्दादि धण्णस्त एयम? असदहमाणा : जेणेव ते णदिफला तेणेन उवागच्छ ति, उवा ग्रच्छित्ता तेसिं नदिफलाण मूलाणि य जार वीसमति, तेसि ण आनाए भइए, भवइ, तभी पच्छा परिणममाणा जार वरोति एपामेव समणाउसो । जो अम्ब निग्गयो वा निग्गथी वा जाव पचइए पचमु कामगुणेसु सज्जेइ, सज्जित्ता जाव अणुपरियहिस्सद, जहा या ते पुरिमा) ત્યા કેટલાક માણસોએ ધન્યસાર્થવાહના નવિફળ વલોના કદમૂળો વગેરે ખાવા જોઈએ નહિં તેમજ તે વૃક્ષોની છાયામાં પણ વિસામે લે નહિ આ જાતના કથન પ્રત્યે શ્રદ્ધાવાન થયા નથી, તેના ઉપર વિશ્વાસ મૂકે નહિ અને પ્રતીતિપૂર્વક તેમાં પિતાની અભિરૂચી બતાવી નહિ તે માણસ ધન્યસાર્થવાહના કથન અશ્રદ્ધેય માનીને જ્યા ન દિફળ વૃક્ષો હતા ત્યા ગયા ત્યાં જઈને તેમણે તેમના મૂળ કદ વગેરે ખાધા અને તેમના છાયડામા વિસા લીધે તે સમયે તે તેમને ખૂબ જ આનંદ પ્રાપ્ત થયે, ફળના સ્વાદમાં અપૂર્વ સુખ મળ્યું, પણ જ્યારે તેઓની પાચન ક્રિયા થવા માડી, એટલે કે ખાધે વગેરે
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy