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________________ नाबणा आधपशानि सध्यामाय, गनाटो पुनरुपमोगायेति, सप्तमिरनोकाभिषविभिः, पोउभिः भात्मरक्षरदेशमाहवामिः, अन्यत्र मिश्र कालानमकमवनवाधि भिरसुरकुमारद वैर्देश भित्र साद्धं सपरिटता ' मध्याहय नाव विहा' महताऽइस यावद् रिहरति-' महयाऽऽहयनगीयपाइयतनीतरतालतुरियपगमुगपडप्पायर पेण' महताऽऽहतनाटपगीतादिव त-नीतरताल हित घनमूहापटुवादितावेम, तत्र- महता' रणेतिसम्पन्च, आगनि-भपाहतानि यानि नाटयगीतानि, तथा-वादितानि-तन्त्रीबीणा, तला हस्तताला, ताला-कास्यताला, त्रुटि तानि-शेपाणि तूर्यादिवायानि, तया घनस मृदङ्गः नवनिमास्याद् यदा स चासौं पटु प्रमादितथेति घनमृद्रपटुमवादितः, ततखिपदी द्वन्दः, तेषा यो रसस्तेन-उपललितान् दिल्यान् भोगमोगान् शदादीन भुलाना विहरति । 'इम चण' अस्मिन्ननसरे खलु केपलकल्प-सपूर्णम जम्बुद्धीप नाम दीप-मध्यजन्बूद्वाप विपुलेन 'ओहिगा' अधिना=अवधिज्ञानेन 'अमोण्माणी २' अभोगयमाना २ पश्यन्ति पुनः पुनरुपयोग ददती सती पश्यति। किं पश्यति ' इत्याह-'तत्य' तत्र ___ अवधिज्ञानोपयोगे श्रमण भगवन्त महावीर जम्मृद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे राजगह साथ अनीकाधिपतियों के साथ, सोलर हजार आत्मरक्षक देवों के साथ, तथा और भी बहुत से कालावतसक भवन में निवास करनेवाले असु रकुमार देवों के एन देवियों के साथ परिवृत रोकर रहा करता था। अव्याहत (सतत) नाटयगीतों के एक वादित तन्त्री,रस्त, ताल, कास्य ताल, त्रुडित आदि तृर्यादिवाद्यों के एव मेघ की ध्वनि जैसे अच्छी तरह घजाये गये मृदगों के सुन्दर र शन्दों से उपलक्षित दिव्य भोगी की भोगती हुई अपने समय को आनन्द के साथ व्यतीत किया करता था। (इम च ण केवलकप्प जद्दीव दीव विउलेण ओहिणा आभीएमाणी २ पासइ, तत्थ समण भगव महावीर जब बीवेदीवे भारहे वासे रायाग રૂપ નિન્યની સાથે અનીકાધિપતિઓની સાથે. સોળ હજાર આત્મરક્ષક દેવના સાથે તેમજ બીજા પણ ઘણા કાલાવત સક ભવનમાં નિવાસ કરનારા અક્ષર કુમારદેવ અને દેવીઓની સાથે પરિત થઈને રહેતી હતી તે અહે (સતત) નાટય ગીતે, વાદિત ત ત્રી. હસ્તકાલ. કાચતાલ, ડિત વગેરે તર્યા વગ: વાદ્યો, મેઘના દવનિની જેમ સારી પેઠે વગાડવામાં આવેલા મદ ઝાના શબ્દથી ઉપલક્ષિત દિવ્ય ભેગોને ઉપભોગ કરતી પિતાના સમયને સુખેથા પસાર કરતી રહેતી હતી ( इम चाण केलकप्प जद्दोरे दीवै विउलेग भोहिणा आभोएमामी २ . जपर . पासइ, तत्थ समणमगर महावीर जबंदीवे दीवे
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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