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________________ ७०४ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे 1 ततः तदनन्तर राजा सहवार्त्तालापानन्तर सद मुमुद्धे = सुबुद्धिनामामात्यस्य अ यमेतदूव = पक्ष्यमाणप्रकार आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित, कल्पित मनोग तमकल्पय नानारूप विचारः समुद्रपयत अहो !=प्रथमेतद् यत्खलु जितशत्रु राजा ' सते' सत = विद्यमाना 'तचे' तचानि = तत्यरूपान् तत्रवतो वा स्वयपरत्वयुक्तान् ' तट्टिए ' तथ्यान् = सत्यान् यद्वा--' तहिए ' तथाच विच्छाया, तथेति चिनोतीति, अभ्ययमिदम् - मानयाऽप्यन्यूनाधिकान् ' अवितहे ' अवितथान् = अविद्यमानासत्यान् 'सम्भूए ' सद्भूतान् = मत्तायुक्तान् ' जिणपण्णत्ते ' जिनमज्ञतान् = जिनभापितान् भागान्' नो अभय' नोप लभते, तत्= तस्मात् कारणात् श्रेय = समीधीत खलु मम यत्-जितशत्रो राज्ञसवा तत्वाना तथ्यानाम् अवितथाना सभूताना जिनमज्ञताना भावनाम् 'अभिगमणट्टयाए ' अभिगमनार्थतायै सम्यगनरोधाय एतमर्थम् = पुतलानामपरासाथ इस प्रकार की प्ररूपणा के जाल में न डालो। रोजा की इस प्रकार वाणी सुनकर सुबुद्धि प्रधान के मन में ऐसा विविध प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ यहाँ विचार के इन और विशेषणों का ग्रहण कर लेना चाहिये - " चिन्तित प्रार्थित कत्पित " । यह बडे आश्चर्य की बात है जो जितशत्रु राजा विद्यमान, तत्त्वरूप अथवा विविध प्रकार कीविक्षा से स्वत्व परत्व रूप से युक्त, तथ्य-सत्य, न न्यून और न अधिक, अवितथ, सत्ता युक्त ऐसे जिन प्रज्ञप्त, भावो को नही समझ रहा है- अर्थात् जितशत्रु राजा के ध्यान में यह बात नही आ रही है कि जिन प्रज्ञप्त (प्ररूपित ) भाव सत्य होते है, अवितथ होते हैं अन्यून अनतिरिक्त होते हैं, अनेक विपक्षाओं को लेकर उन में नानो धर्म विशिष्टता होती है - (त) इस लिये (सेय खलु मम, जियसत्तुस्त रण्णो सताण तच्चाण तरियाण अवितरण सम्भूताण जिणपण्णत्ताण भावा નના મનમા અનેક વિચાર ઉદ્ભવ્યા અહીં વિચાર ઞબધી આ વિશેષણેનુ श्रयु पशु पुरीषु लेएयो “चिन्तित प्रार्थित कल्पित " सोहम नवार्ध જેવુ લાગે છે કે જીતશત્રુ રાજા વિદ્યમાન તત્ત્વ રૂપ-અથવા તે વિવિધ પ્રકા રની વિવક્ષાથી સ્વત્વ પરવ રૂપથી યુક્ત, તથ્ય સત્ય, ઘણુ આપ્યુ પણ નહિ અને ઘણુ વધારે પણ નહિ, અવિતથ સત્તા યુક્ત એવા જીનપ્રજ્ઞના ભાવેને સમજી રહ્યા નથી એટલે કે જીતશત્રુ રાજા આ વાતને સમજી શકયા નથી કે જીન પ્રજ્ઞસ વડે નિરૂપિત થયેલા ભાવે સત્ય હૈાય છે, અવિતથ હોય છે, અન્યૂન અનતિરિક્ત ાય છે, અનેક વિવક્ષાઓને લઈને તેમનામા નાના ધ વિશિષ્ટતા હૈ।। એ (R)માટે ( सेय सल मम जियसत्तूस्स रण्गो सताण तच्चाण अवितहाण
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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