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________________ ६८४ নাগাথা कुल = कृमिपुञ्जयुक्त यन तनावयरे पुनीभृतकृमिव्याप्तम् , पात्र 'ससत्त' ससक्त तन्मयमित्यर्थः, 'असुइ विगययीभत्यदरिमणिज्ज' अशुचिविकृतवीभत्स दर्शनीयम् अशुचि-अस्पृश्यत्वादपवित्र, विस्त=पिकाग्युक्त , गीभत्सम्धृणित दर्शनीय-दृश्य यस्य तत्तथोक्तम् 'एयारूपेसिया एतद्रूप स्यात्-पिम् अहिमृतादि सदृश स्यात्-अस्ति ?, इति प्रश्नो भवेत् भगाना-'नो इणहे समटे' नायमर्थ समर्थः-नैतादृश किन्तु- एत्तो' एतस्मादपि अणिठ्ठतराए चा' अनिष्टतरमेव अत्यन्तघृणाजनक यावत् स्पर्शन प्राप्तम् ।। मृ. १॥ मूलम्-तएण से जियसत्त राया अण्णया कयाइ पहाए कायवलिकम्मे जाव अप्पमहग्याभरणालकियसरीरे बहूहिं राईसर जाव सत्थवाहपभिईहि सद्धि भोयणवेलाए भोयणमडवसि सुहासणवरगए विपुल असण? जाव विहरति, जिमियभुत्तुत्तरागए आयते चोक्खे परमसुइभूये तसि विपुलसि असण ४ जाव जायविम्हए ते वहवे ईसर जाव पभिइए एव वयासीअहो ण देवाणुप्पिया। इमे मणुण्णे असण४ वण्णेण उववेए जाव फासेण उववेए अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीयणिज्जे दीवणिजे दप्पणिज्ने मयणिजे विहणिजे सव्विदियगायपल्हाय"णिज्जे, तएण ते वहवे ईसर जाव पभिइओ जियसत्तू एव वयासी-तहेव ण सामी । जपण तुम्भे वयइ अहो ण इमे 'मणुण्णे असण४ वण्णेण उववेए जाव पल्हाणिज्जे, तएणं चारों ओर दुर्गध फैल रही हो उस का नाम दुरभिगप है । सड जाने के बाद जिस के अग उपाग सब तरफ विग्वरे हुए पडे हो उस का नाम व्यापन्न है। यहा मृतक शब्द से जीव रहित शरीर लिया गया है। सूत्र ॥१॥ ‘જેમાથી મેર દુર્ગધ પ્રસરી રહે છે તેને “દુરભિગ ધ” કહે છે મડદુ સડી જાય છે અને તેના બધા અંગે ઉપાગે ચોમેર વિખેરાઈ જાય તેને વ્યાપ के सही भृतशपथी नि७१ शरीर सभा ME . ""॥
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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