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________________ माताधर्मपाल मध्यस्थमायेन 'सहइ ' सहते-मुग्वायरिफारसरणेन मर्पति, 'खमर' समते मोधाभावेन, तितिक्खा, तितिक्षते-मदीनाभागेन, 'अहियासेड' मध्यास्ते निर्जराभारनयाऽन्त रणेन सहत । आच पहनाम् अ पतीथिकाना बना गृहस्थानाम् प्रतिकूल पचनानि नो सम्पकसम्यम्मान सहते यावत् नो अध्यास्ते, एप खलु-एयम्भूत• पुरुपः 'मए' मया ' देशपिरावर ' देशपिराधक. पास । पुनश्च हे श्रमणा:-आयुष्मन्त ! यदा सलु 'सामुद्दगा' सामुद्रका-समुद्र सम्बन्धिनः ईपत्पुरोगाता. स्वल्पदिपाया. 'पच्छापाया' पत्राद्वाता -पश्चिमसे सहन करता है उन वचनो को सुनार जिनके मुख आदि में कोई विकार नही झलकता है क्रोध नहीं उत्पन्न होता है, अदीन भावसे जो उन्हें सहन करता है, निर्जरा की भावना से जो उन्हें अपने अन्तः करण से सहलेता है-तथा फुतीर्थिकों के गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को जो सहन नहीं करता है-यारत् उन्हें अध्यासित नहीं करता है ऐसा व्यक्ति मैने देश विधक प्रज्ञप्त किया है। (समणाउमो ! जया ण सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मदाबाया महावाया वायनि तयाण पहवे दावद्दया रक्खा जुण्णा शोडा जाय मिरापमाणा २ चिट्ठति, अप्पे गइया दावचा रुसवा पत्तिया पुफिया जाव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति एवामेव समणाउसो जो अम्द निग्गयो वा निग्गयी वा पच्वइए समाणे पहण अण्णउत्थियाण बहण गिहाण मम्म सरह ब्रहण समणाण ४ नो सम्म महद एसण मा पुरिसे देसाराहए तृण्णत्त) पुनश्च-हे आयु ભાવથી સહન કરે છે, તે વચનોને સાંભળીને જેના મે વગેરે અગો ઉપર કોઈ પણ વિકાર સરખેએ થતો નથી, ક્રોધ ઉત્પન્ન થતું નથી, અદીન ભાવથી જે તેને ખમતો રહે છે–સહન કરતો રહે છે, નિર્જરાની ભાવનાથી જે તેઓને પિતાના અતરથી સહન કરી લે છે તેમજ કુતીર્થિ કોના ગૃહસ્થાને પ્રતિકૂળ વચનને જે સહન કરી શકતો નથી યાવત તેઓને અધ્યાસિત કરતે નથી એવા માણસને મે દેશ-વિરાધક તરીકે પ્રજ્ઞપ્ત કર્યો છે (समणाउसो ! जयाण सामुद्दगा ईसिं पुरे वाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तयाण वडवे दावदवा रूस्खा जुग्णा झोडा जान मिलायमाणा २ चिट्ठति, अप्पेगइया दावदना रुक्खा पत्तिया पुफिया जाव उपसोभेमाणार चिट्ठति एवामेर समणासो जो अम्ह निग्गयो वा निग्गयी वा पन्चाए समाणे बहूग अण्णउत्थियाण रहण गिहत्याण सम्म सहइ बहूण समणाण ४ नो सम्म सइइ एसर्ण मए पुरिते देमाराहए पण्णत्ते )
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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