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________________ ६७२ वाताधर्मत्र वाह , " 1 4 B 1 , ( प्रत्रिता = पत्रयुक्ता पुफिया पुष्पिताः=उपयुक्ता', 'फलिया' फलिता फल समृद्वाः, ' हरियगरे रि नमाणा' हरितकराराज्यमानाः = हरितक्रेन : हरितवर्णेनातिशयशोभमाना मिरीए त्रिया = पत्रपुत्पादि शोभया अवी बावीर अत्य तम् उपशोभमानाः श्रोभासमन्नः तिष्ठन्ति । यदा खट्ट=यस्मिन् काले ' दीविच्चगा ' द्वेप्या' द्वीपसम्मनाः । ईसिपुरेवाया 'ईपत्पुरोपाताः स्वल्पा पूर्वदिग्वा पच्छानामा पश्राद्वाताः = पश्चिम दिग्गायत्रः ' महानाया ' मन्द बाँठा =शनैः शनैः सञ्चारिणो वायन', ' महावाया ' महावाता. =मचण्डवायवः वायति' वान्ति = चलन्ति तदा खलु महो दाना वृक्षा पत्रिता यावत् श्रिया ती पोपशोभमानास्तिष्ठन्ति । ' अप्पेगइया ' अप्येकका कतिपया स्तोका पन्न युक्त थे, पुष्प युक्त थे फलो से समृद्ध थे । हरित वर्ण से ये सब अतिशय शोभायमान रो रहे थे । इस तरह पत्र पुष्पादि की शोभा से इनकी शोभा अत्यंत निराली घनी हुई थी। इस कारण ये विशिष्ट शोभा सपन्न बने हुए थे। (जयाण दीपिच्चगा ईसि पुरेवया पच्छा वाया मदावाया मानाया वायति, तथा ण बहवे दानवा रुक्वा पत्तिया ज्ञाय चिट्ठति, अपेगइया दावद्दवा एक्सा जुन्ना झोडा परिसडिय पडुक्त्त पुष्कफलासुररूपखाओ विव मिलायमाणा २ चिट्ठति ) जिस समय द्वीप से उत्पन्न हुई पूर्व दिशा संबन्धी स्वल्प हवाएँ, पश्चिम दिशा सवन्धी स्वल्प हवाएं, घीरे २ चलने वाली वायु तथा प्रचण्ड वायुए चलने लगती तो उस समय अनेक दीवद्रव वृक्ष पत्र पुष्पादि की शोभा से निगले, बने हुए ज्यो के त्यों खड़े रहते थे उनमें कुछ भी विकार नही होता था | तात्पर्य इसका यह है कि जय टापू से पूर्व दिशा હતા પત્રા અને પુષ્પાથી એમની શાલા અનેરી થઈ પડી હતી એથી એએ ઞવિશેષ ઊભા–સ પન્ન લાગતા હતાં (जयाण दीविच्चगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मदावाया महावाया वायति तया बहवे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति, अप्पेगड्या दानवा रुक्खा जुन्ना झोडा परिसडिय पडुपतपुप्फफल सुक्करुवखाओ चिन मिलायमाणा२चिट्ठति) જ્યારે દ્વાપા ઉપર વહેતા પૂર્વ દિશાના આછા પત્ર, પશ્ચિમ દિશાના આછા પવના, ધીમે ધીમે વહેનારા પત્રને તેમજ પ્રચ ડ પક્ષના કાવા લાગતા ત્યારે પુત્ર-પુષ્પ વગેરેની શાભાથી અનેરા લાગતા દાત્રદ્રવ વૃક્ષે જે સ્થિતિમા ઊભા હતા તે જ સ્થિતિમા વિકાર વગરના થઈને સ્થિર થઈને ઊમા જ રહેતા હતા કહેવાની મતલબ એ છે કે જ્યારે દ્વીપના પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશાના મદ, સુગંધ અને શીતળ પવના વહેતા હતા ત્યારે પત્ર-પુપે! વગેરેથી સ પન્ન "
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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