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________________ धर्मामृतवर्षिणी टीका २०११ जीवानामाराधक विराधकत्वनिरूपणम् ६७१ तस्मिन् समये राजगृहे नगरे गौतम एकमनादीत् - एवमपृ छत्-कथ खलु भदन्त ! हे भगवान् ! जीवा राजका=ज्ञानादि रत्ननगरूपमोक्षमार्ग नाका', विराधका = तद्विपरीता भवन्ति । एतमर्थ भगवान् दृष्टान्तेन वर्णयति - हे गौतम! तद्यथा नामक=यथा दृष्टान्तम् - एकस्मिन् समुद्रकुले = सागरतटे ' दावद्दवा ' दावद्रवा नाम = एतान्नामधेया वृक्षाः प्रज्ञप्ताः । कीदृशा. ' इत्याह-' विण्हा ' कृष्णा कृष्णवर्णा यावत् महामेघनिकुरम्प्रभूता' =नलमम्भृतमेवन्दमदशा पत्तिया ' " ज्ञाताध्ययन का अर्थ निरूपित किया है वह इस प्रकार है- ( तेण कालेण तेण समएण रायगिहे गोयमे एव वयासी) उस काल और उस समय में राजगृहनगर मे श्रमण भगवान् महावीर प्रभु पधारे - उनसे गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा- ( कण्ण भते ! जीवा आराहगा वा विराह गा वा भवति ? ) हे भदत ' जीव ज्ञानादि रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग के आराधक साधक- और विरापक कैसे - किस कारण से होते है ? ( गोयमा । से जहानाम० एमसि समुहकुलसि दावा नोम रुक्खा पण्णत्ता) प्रभु ने उनकी इम बात का उत्तर इस तरह के दृष्टान्त से दिया हे गौतम 1 के समुद्र तटपर दावद्रव " इस नामके बहुत से वृक्ष खडे हुए थे ( किव्हा जाब निऊरनभूया पत्तिया पुष्क्रिया फलिया हरियगरेरिज्जमाना, सिरीए अतीव २ उबसोभेमाणाविति ) ये सब जल से भरे हुए मेघों के समूह जैसे कृष्ण वर्ण के थे स्वामी तेने है ( एवं सलु जनू 1 ) हे ज्यू ! सालजो, प्रभुसे अगि ચારમા જ્ઞાતાધ્યયનના અર્થ આ પ્રમાણે નિરૂપિત કર્યાં છે 66 ( तेण कालेन तेण समएण रायगिदे० गोयमे एव वयासी ) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર पधार्थ गौतम स्वाभीओ तेभने माप्रमाणे प्रश्न ये-- ( कण्ण भते ! जीवा आराहगावा विराहगावा भवति ? हे लहत ! लव ज्ञान वगेरे रत्नत्रय ३५ મેક્ષ માર્ગના આરાધક-સાધક અને વિરાધક કેવી રીતે-શા કારણથી થાય છે ? ( गो० 1 से जहानामए एगसि समुद्दकूलसि दानवा नाम रुक्खा पण्णत्ता) પ્રભુએ તેમના તે પ્રશ્નના જવાબ દૃષ્ટાન્તના આધારે આપતા કહ્યુ હૈ ગૌતમ ! સમુદ્રને દ્વદ્રવ જતિના ઘણાં વૃધ્યેા હતા ( विण्हा जाव निकरन भूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरे रिज्जमाणा, सिरीए अतीव २ उनसोभेमाणा चिद्वति ) એ બધા વૃક્ષા જળપૂણૅ મેઘ સમૃહેાની જેમ કાળા ૨ગના હતા અંધા વૃક્ષા, પત્રા, પુષ્પા અને ફળાવી સમૃદ્ધ હતા લીલા ૨૫થી એ વૃક્ષ શેલતા
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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