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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १० जोधाना वृद्धिदानिनिरूपणम् ६५९ टीका - यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण नवमस्य ज्ञाताध्ययनस्यायम्= पूर्वोक्तमकारः अर्थ. =भान. प्रज्ञप्त =थित, स मया श्रुतः, किन्तु दशमस्य ज्ञाता ययनस्य कोऽर्थः = को भाव ? प्रज्ञप्त ? | सुर्मासामी माह एव खलु हे जम्मू । तस्मिन् काले तम्मिन् समये राजगृहे नगरे ' सामी' स्वामी= श्रीमहावीरस्वामी 'समोसढे समस्त = समागत, तदा गौतमस्वामी एनमवादीत्कथ खलु=केन प्रकारेण हे मदत ! जीवाः ' बहुति वा 'नर्दन्ते= वृद्धिमाप्नु वन्ति वा 'हाय तिवा' हीयते = हानि प्रप्नुवन्ति वा? जीवा द्रव्यतोऽनन्तत्वेन, प्रदेशतचापि प्रत्येक्मसङ्ख्यात प्रदेशत्वेनानस्थितपरिमाणत्वाद् वृद्धिहानी प्राप्तु नार्हन्ति, किन्तु क्षान्त्यादिगुणाना वृद्धा पर्द्धन्ते हान्या तु हीयन्त इति० 'जहण भते ! समणेण ' इत्यादि । " टीकार्य - ( जण भते) यदि हे भदत । ( समणेण णवमरम णाय ष्यणस्स अयमट्टे) श्रमण भगवान् महावीर ने नवम ज्ञाताभ्ययन का पूर्वोक्त रूप से यह अर्थ प्ररूपित किया है तो ( दसमस्त के अहे ) ० ? दशवे ज्ञाताध्ययन का उन्हों ने क्या भाव अर्थ कहा है ? इस प्रकार जबू स्वामी के प्रश्न को सुनकर श्री सुधर्मास्वामी उन्हें समझाने के अभिप्राय से करते है कि ( एव खलु जबू 1 ) हे जब सुनों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है- ( तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नघरे सामी समोसढे - गोमसामी एव वयासी) उस काल मे और उस समय में राजगृह नाम के नगर में श्री भगवान् महावीर स्वामी पधारे उस समय गौतम स्वामी ने उन से ऐसा पूछा (कण भते ! जीवा वडूति, वा हायति वा ? गो० से जहा नामए पक्खस्स पाडिया ० Si जण भते ! समणेण " इत्यादि । टीअर्थ - (जइण भते 1 ) ले डे सह । ( समणेण ण्वमस्स णायज्झयणहस अयमट्ठे ) श्रमण भगवान भडावीरे नवभा ज्ञाताध्ययननो पूर्वोत ३ अर्थ निचित तो ( समस्म के अड्डे ? ) हराभा ज्ञाताध्धयनना तेथेोये शो ભાવ અર્થે નિરૂપિત કર્યાં છે આ પ્રમાણે જમ્મૂ સ્વામીના પ્રશ્નને સાભળીને શ્રી સુધર્માસ્વામી તેમને બધી વાતની સ્પષ્ટતા કરવાના હેતુથી કહે છે કે ( एव सलु जनू' ) हे न्यू भालजी तमारा प्रश्ननो वाण या प्रभाऐ } } (तेण कालेन तेग समएण रायगिहे नयरे सामी समोसढे गोयममामी एन यासी) તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નામે ગરમા શ્રી ભગવાન મહાવીર સ્વામીની પધરામણી થઇ તે સમયે ગૌતમ સ્વામાએ તેમને પ્રશ્ન કર્યો ફે ( कण्ण भते । जीवा चटुति, वा दायवित्रा ? गो० से जहानामए हु
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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