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________________ ६४७ - अनगारधर्मामृतयपिणी टोका अ० ९ माफन्दिदारकरितनिरूपणम् टीका-'तपण सा' इत्यादि । ततः खलु तदनन्तर जिनरवित्तवधानन्तर सा रत्नद्वीपदेवता यत्रैव जिनपालितस्तोवोपागच्छति, उपागत्य बहुभिः-अनुलोमै. अनुकूलैश्च, प्रतिलोमैः-प्रतिकूलेश्च 'खरमहरसिंगारेहि' सरम पुरशृङ्गारैः सरै अर्की , मधुरैः-मिप्टैः कर्णसुखदैरित्य , पृङ्गारैः शृङ्गाररसोत्पादकैः, करुणैश्चरस्णाननकै उपसगैरनुकलरूपैश्च यदा त नो शनोति 'चालित्तए वा' चालयितुम् अधीरतामुत्पादयितुम् , ' बोभित्तए वा सोभयितु सुन्ध कर्तुम् , विपरिणामित्लए' विपरिणमयितुम् मनः परिणाम परामर्तयितु न समर्धाऽभूत् तदा सा ' सता' शान्ता शिथिला हतोत्साहा, बान्ता वा-परिश्रमिता तान्ता=खिन्ना, परितान्ता-सर्वथा खेदमापन्ना 'नधिण्णा' निर्षिगा-रिमन का सती यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता समागता तामे दिश प्रतिगता प्रतिनिटत्ता। तएण सा रयणहीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवा वच्छड इत्यादि। ____टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (सारयणदीवदेवया ) वह रयणा देवी (जेणेव जिणपालिए ) जहा जिन पालिन था ( तेणेव उवागच्छद) वहा आई (यहिं अणुलोमेहिं पडिलोमेहिं खरमहरसिंगारेहिं कलुहिं य उवमग्गेहि य जाहेनो मचाहिं चालित्त वा ग्वोभि ० विप्प ० ताहे सतातत्ता परितता निविणा ममाणा जामेव दिसि पाउ तामेव दिस पडिगया ) यहा आकर उन से अनेक अनुक्ल प्रतिकृल, कर्कश, मयुर-कर्ण सुग्बद-गार रसोत्पादक, एव करुणारस जनक उपसर्ग वचनो द्वारा उसे चलायमान करने का क्षुभित करने का और उमकी मोनवृत्ति को यदल ने का वरत प्रयत्न किया परन्तु जर वह उसे चलायमान करने के लिये, क्षुभित करने के लिये एव उस की मनोवृत्ति बदलने के लिये समर्थ नहीं हो सकी नर हतोत्साह परिश्रमित तएण सा रयणदीपदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उनान्छ. इत्यादि । __ -(तएण) त्या२५छी (सा रयणदीवटेवया) ते २५ वी (जणेव जिणपलिए ) या नामित ना ( तेणेव आगच्छइ ) त्या मापी __(रहहि अणुलोमेहिं क्लुहिं य उवसग्गे हि य जाहे नो सचाएहिं चालित्तए पा सोभिः विप्प ताहे मतातत्ता परितता निविणा समाणा जामेव दिसि पाउ० तामय दिम पडिगया)। ત્યાં આવીને ઘણા અનુકૂળ, પ્રતિળ, કર્ક, મધુર, કર્ણસુખદ & ગાર રત્પાદક, અને કરૂણું પ્રમજનક ઉપસર્ગ વચને વડે તેને પિતાના નિશ્ચયથી - • --ના મુક્તિ કરવાના અને તેની મને વૃત્તિને ફેરવી નાખવાના ખૂબજ
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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