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________________ होताधर्मया हितवान् । ततः खलु अह 'पोत्यहणवितोए' पोतबहनविपत्ती, नौगया भग्नागी सत्यों 'निमुड मडसारे' निबुडितभाण्डसारः लनिमग्नमस्तु बारः, एक फलक खण्डमासादयामि । ततः खल्लह 'उन्मुझमाणे २ उद्युध्यमानः २ उतरन् २ रत्नद्वीपान्ते रत्नद्वीपसमीपे खलु 'सबूढे ' सव्यूहातीर माप्तः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता माम् 'ओहिणा' अवधिना अधिज्ञानेन पश्यति, दृष्ट्वा मा गृहवि, गृहीत्वा मया साई विपुलान् भोगमोगान् शमादिविषयान् ‘भुनमाणी' सुनाना * विहरइ ' विहरति-भास्तेस्म । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता, अन्यदा कदाचिद 'अहालहुसगसि' यथालघुस्वके यथाप्रकारके लघुस्वरूपे स्तोकमानेऽपराधे परिकृषि लवणसमुद्र में उत्तरा (तण्ण अह पोयवरणविवत्तीए) भाग्यवशात् मेरी नौका इस समुद्र में टकरा जाने से पगई । (नित्रुहुभहसारे एगे फलगखड आसाएमि) इस तरह जिसका समस्त रस्तुसार जलनिमग्न हो चुका है ऐसे मुझे वही पर एक काष्ठफलक प्राप्त हो गया । (तएण अह उघुज्झमाणे२ रयणदीच तेण सबुडे) उसकी महायतासे तैरताहुआमैं इस रत्नदीपके पास आपहुंचा। (नएण सारयणदीवदेवयाममओरिणापासह) इतने में उस रत्नदीपदेवी ने मुझे अपने अवधिज्ञान से देख लिया(पासित्ता मम गेण्हह, गेण्डित्ता मए सद्धि विपुलाइ भोगभोगाइ भुज माणी विहरइ तएणसारयणदीवदेवया अण्गया कयाइ अरालहुसगसि अवराहसि परिकुचिया समाणी मम एयारूव आवत्ति पावेइ त न ज्जइण देवाणुप्पिया ! तुम्हपि इमेसि सरीर गाण का भण्णे आवत्ती भविस्सा') देखकर उसने मुझे अपने पास रख लिया। रखकर मेरे साथ उसने मन चाहे खूप कानभोगोंको भोगा। किसी एक वहण विवत्तोए ) यथी भारी नाप - समुद्रमा मथ ने दूमा गई (निब्युडभडसारे एग फलग-सड आसाएमि ) मा शत यानी मी વસ્તુઓ જ્યારે પાણીમાં ડૂબી ગઈ ત્યારે પાણીમાજ એક લાડુ મને મળી गयु ( तएण अह उबुज्झमाणे २ रयणदीव तेण सबूडे ) तेना २ तराई मा २त्नदीपनी पासे मानी पडायो (तएण सा रयणदोवदेवया मम ओहिणा पासइ) मेटामातेनीवास भने पोताना धिशानी Salil (पासित्ता मम गेण्हइ, गेण्हित्ता मए सद्धिं विपुलाइ भोगभोगाइ भुजमाणी विहरइ तएण सा रयणदीवदेवया अण्णया क्याई अहालहुमगसि अबराहसि परि. कुविया समाणी मम एयाख्व आवत्ति पावेइ त न णज्जति ण देवाणुप्पिया! तुम्बपि इमेसि सरोरगाण कामण्णे आवत्ती भविस्सइ ?) • જોઈને તેણે મને પિતાની પાસે રાખી લીધું અને રાખીને,
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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