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________________ ५२० सोकान्तिदेवानां, यद् अर्हता पोयितमित्यर्थः, तद्-तस्माद् गन फुर्म इति कृत्वा एर संप्रेक्षन्ते-पि ईशानकोणम् अवकाति, अवक्रम्य फुर्वन्ति । समनहत्य सरयातानि यो रत्नमय फुति-कृत्वा च एव यथा दिव्यगत्या यावत्-यौर मिथिला राज मल्लो अनि तत्रैकोपागच्छति आगर मर्यादा है कि वैराग्य की मन में - तय उन्हें सबोधन करना-यह कहन उनित अवसर है। इमलिये हम लं सपोधन करें। ऐसा विचार कर ( मति, अवस्कमित्ता चेउवियसम सखिज्जाइ जोयगाइ एव जमगा . कुभगस्स रण्णो भवणे, जेणे मर सब के सब लोकान्तिक देव ईशान वैक्रिय समुद्धात से उत्तर वैक्रिय की ने अपने अत्मप्रदेशो को रत्नमय * याद में ज़भक देवों की तरह से जहा मिथिला राजधानी थीभयो। ( प्रालित) डाय है। ઉદ્દભવે કે તરત જ તેમને સ બાધ કરવી કે હે ભગવન! દીક્ષા ગ્રહ એટલે અમે પણ ત્યા જઈએ અને (उत्तर पुरथिम दिसीभाय पण समोणति, समोहणित्ता, सा मिहिला जेणेन कुभगस्स रण्णो તેઓ બધા લૌકાતિક વૈકીય સમુદ્રઘાતથી ઉત્તર દે આત્મપ્રદેશોને રતનમય દડા ત્યારપછી ઝલક દે યા મિથિલા રાજધાની મલ્લી અર્હત વિરાજમાન
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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