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________________ ભાર शाताधर्मकथासूत्रे 1 नुप्रिय ' समुद्रः, ततस्तदनन्तर खलु म दर्दुरः = कृपमण्डक पादेन रेखा कर्षति, कृष्ट्वा, एवमवादीत् - इयन्महालय: = एतावान निस्तीर्णः खलु हे देवानुप्रिय ! स समुद्रः ?, तदा समुद्रमक आह-' नायमर्थः समर्थः ' इति अय रेखया निर्दिष्टो विस्तारः समुद्रविस्तार बोधयितु न शक्तइत्यर्थः । उक्तार्थे हेतुमाह-' महालय खलु स समुद्र ' खलु निचेन स समुद्रो महालयोऽति विस्तीर्णः समुद्रस्य महत्त्व न केनापि निर्देष्टु शक्यत इतिभावः । ततस्तदनन्तर ख स कूपदर्दुर. पौरस्स्यात् =अग्रवर्तिनः, वीरादुत्पत्य= कूर्दयित्वा खलु गच्छति, = कृपस्य द्वितीयतीरमिति भावः । गवा एवमनादीत् - इयन्महालय = एतावान्विशाल खल हे देवानुमिय ! देवाणुपिया ! समुद्दे, तण्ण से दद्दुरे पाण्ण लीह कडेड, कड्डित्ता एव वयासी, ए महालगण देवाणुनिया से समुद्दे णो इणट्ठे ममट्ठे महालएण से समुद्दे ) हे देवानुप्रिय । वह समुद्र तो बहुत बड़ा है। इस पान को सुनकर उस कृप मेढक ने अपने पैर से एक रेखा खेची और खेचकर बोला हे देवानुप्रिय ! वह समुद्र इतना भारी विशा ल है । प्रत्युत्तर मे उस समुद्रवासी मेंढक ने उस कूप मेढक से कहानहीं वह इतना बड़ा नहीं है - वह तो इस से भी अधिक बड़ा है अर्थात् रेखा से निर्दिष्ट जो विस्तार है वह समुद्र के विस्तार को बतलाने में समर्थ नही हो सकना है उस का विस्तार तो क्या कहे- बहुत ही अधिक है । (तरण से कूवदुरे पुरथिमिलाओ तीराओ उष्फि डित्ता ण गच्छह, गच्छित्ता एव वयासी ए महालएण देवाणुपिया ! से समुद्दे णो इणट्टे समट्टे ) समुद्रवासी मेंढक की बात सुनकर वह कूप मेंढक अपने अग्रवर्ती तीर से कुए के दूसरे तौर पर उछल गया- वहा पाएण लीह कड्डे, रुड्डित्ता एन वयासी ए महालएण देवाणुपिया से समुद्दे णो समट्ठे महल से समुद्दे ) હૈ દેવાનુપ્રિય ! સમુદ્ર તેા બહુ વિશાળ છે આ વાત સાભળીને કૂવાના દેડકાએ પેાતાના પગથી એક લીટી દોરી અને તેને કહ્યું કે હે દેવાનુંપ્રિય । તે સમુદ્ર આટલા વિશાળ છે? ત્યારે જવાખમા સમુદ્રના દેડકાએ કહ્યુ કે નહિ, તે આટલે મેટે નથી તે તે એના કરતા પણ વિશાળ છે એટલે કે લીટી દોરીને જે વિસ્તાર બતાવવામા આવ્યા છે તે સમુદ્રની વિશળતાને અકિત કરવામા અરાક્તિમાન છે તેને વિસ્તાર તે ખૂબ જ વિશાળ છે (तरण से वददुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उल्फिड़िता ण गन्छ गच्छिता एव वयासी, ए महालए ण देवाणुप्पिया ! समुद्दे णो इसम
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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