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________________ माताधर्मकथाpet ण्डल्युगलस्य सन्धि सघटयत सन्धि समय त्रुटित सन्धि योजिला - एतामा = ममाप्तिं प्रत्यर्पयत ' इति, ततः ग्वलु वय तद् दिव्यं कुण्डलयुगल गृहीमः, सुवर्णकारकाः यावत्-तत्रैवोपागच्छामः उपागत्य तत्रोपविश्य वय कुण्डल युगलस्य सधि सघटयितु प्रयत्न कृतात परतु नो शक्नुमः सनटयितु सयोजयि तुम्, तत' तस्मात् कारणात् खलु हे स्वामिन् ! एतस्य दिव्यस्य कुण्डलस्यान्यत् सदृश कुण्डलयुगल घटयामः =रचयाम', ततस्तदनन्तर खलु स कुम्भको राजा तस्याः सुवर्णकारश्रेण्याः सुवर्णकारसमूहस्य अन्तिके समीपे, एतमर्थ = कुण्डलसन्धिसघटन ४०२ - घुलाकर ऐसा कहा था कि तुम लोग इस दिव्य कुटल युगल की सि को कि जो टूट गई है - खुल गई है-ठीक कर दो-जोड़ दो और जोड़कर हमारी इस आज्ञप्ति को पूर्ण कर इस की हमें ग्वपर दो (तरण अम्हे त दिव्य कुडलजुयल गिण्ामो जेणेव सुवन्नागारभिसियाओ जाव नो सचाएमो सघडित्तए तएण अम्हे सामी । एयस्स दिव्वस्स कुडलस्स अन्न सरिसय कुडलजुयल घटेमो ) हमने उस दिव्य कुडल युगल को ले लिया था और लेकर हम लोग जहा सुवर्ण कारों के बैठने का स्थान था - वहा चले गये थे वहां बैठकर हम लोगों ने अनेक साधनों द्वारा, अनेक उपायों द्वारा और अनेक व्यवस्थाओं द्वारा इस कुडल युगल की सधि को जोडनेका प्रयत्न किया परन्तु यथोचित रूपसे जोड़ने में हम लोग सफल प्रयत्न नही हो सके है अतः हे स्वामिन्! आपकी आज्ञा हो तो हम इस दिव्य कु उलके ममान और दूसरा कुडल युगल बना देते हैं - (तएण से कुभए राया तीसे सुवन्नगारसेणीए अतिए एमड હૈ સ્વામિન તમે આજે અમને મેલાવ્યા હતા અને ખેાલાવીને કહ્યું હતુ કે તમે લેાકા આ દિવ્ય કુકડાને સધિ ભાગ તૂટી ગયા છે તેને સારા કરી આપે, સાધી આપે અને સાધીને અમને ખબર માપે (तरण अम्हे व दिव्व कुडल जुयल गिण्हामी जेणे सुवन्नागारभिसिया ओ जाब नो सचाएमो सघडित्तए तएण अम्हे सामी ' एयस्स दिव्वस्स कुडलस्स अन्न सरिसय कुडलजुयल घटेमो ) અમે તે કુડળની જોડને લીધી અને લઈને જ્યા સાનીએને એવસાની જગ્યાએ છે ત્યા ગયા ત્યા બેસીને અમે લેાકેાએ ઘણા સાધના ઉપાચાને ઘણી વ્યવસ્થાએ વડે આ અને કુંડળાના તૂટેલા ભાગને સાધવાના પ્રયત્ના કર્યાં, પણુ તેઓને ચગ્ય રીતે સાધવામા અમે લેાકેા સફળ થયા નથી, એથી હે સ્વામી ! આપની આજ્ઞા હાય તા આ દિવ્ય કુંડળો જેવાજ બીજા કુંડળો ઘી આપીએ
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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