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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कुणालाविपत्तिरुक्मिनृपवणनम् ३१५ 1 त्यर्थ' । ततस्तदनन्तर खलु म रुक्मी राजा वर्षधरस्य = वर्षधर पुरुषस्यान्ति के समीपे 'एम' श्रुत्वा निशम्य 'सेस नहेव ' शेष तथैव शेषवृत्तान्त चन्द्रच्छायनृप वद् बोध्यमित्यर्थः । तथाचाय सम्बन्धः स रुक्मी त वर्षधर प्रत्येवमवादीत्हे देवानुमिय । कीदृशी मल्ली वर्तते, तदा वर्षधर आह-नो खलु अन्या कापि ताशी देवाच्या वा यावत् यादृशी खलु मल्ली विदेहराजवरकन्या, अत्र यावच्छ देनासुर नागयक्षगन्धर्मादि अन्यकाः सग्राह्या, ततः खल्लुस रुक्मी वर्षधरपुरुष प्रकार कहा - हे स्वामिन् । में किमी समय आपका दूत होकर मिथिला नगरी गया हुआ था वहा मैने कु भक राजा की पुत्री कि जो प्रभावती की कुक्षि से अवतरित हुई हे मल्ली कुमारी का जो विदेश राजा की पुत्रियो में सर्वोत्तम है जैसा स्नान महोत्सव देखा उसके समक्ष यह सुबाहुदारीका का मज्जनोत्सव लक्षाश - लाखमें अश को भी प्राप्त नही कर सकता है । (तरण से रुपी राया परिसवरस्म अतिए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म सेस तहेब मज्जणगजणितहासे दूत सहावे सदावित्ता एव वयासी जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए) इस के बाद रुक्मी राजाने जय वर्षपर ( कचुकी पुरुष ) के मुख से ऐसी बात सुनी तो उसका विचार कर उसने चन्द्रच्छाय राज की तरह अर्थात् राजा ने वर्ष घरसे मरली कुमारी के विषय में अपनी जिज्ञामा प्रकट की- पूछा वह कैसी है-तय वर्षधर ने उस से कहा- हे देवानुप्रिय ! क्या कहें- जैसो वह है ऐसी तो कोई भी कन्या नही है-न ऐसी कोई देव कन्या है न कोई असुर कन्या हे, न कोई नाग कन्या है, તરીકે મિથિલા નગરીમા ગયા હતેા ત્યા મે પ્રભાવતીના ગર્ભથી જન્મેલી વિદેહ રાજાની બધી પુત્રીઓમા શ્રેષ્ઠ કુભ રાજાની પુત્રી મલી કુમારીને જેવે સ્નાન મહેદ્ભવ જોયા તેની મામે સુમાહુ દારિકાને સ્નાન મહેાત્સવ લક્ષારા પણ કહી શકાય તેમ નથી 1 (तरण से रुप्पीराया वरिसर अतिए अयम सोच्चा णिसम्म सेस तहेव मज्जणगजणितहासे दूत सदावेद, सदाविचा एव व्यासी जान जेणेव महिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ) કમી રાજાએ જયારે વર્ષોંધર ( - ચુકી પુરુષ) ના મુખેથી આ પ્રમાણે વાત સાભળી ત્યારે તેના વિષે વિચાર કરીને તેણે ચન્દ્રરાય રાજાની જેમ એટલે કે રાજાએ વધસ્તે મલ્લી કુમારીના સમૃધમા પોતાની ઈચ્છા જણાવતા કહ્યુ કે તે કેવા છે ? ત્યારે જવાથ્યમા વધરે કહ્યુ કે હે દેવાનુપ્રિય ! શુ કહું ? જેવી તે કન્યા છે તેવી તે કઈ પણ એવી કેડ નથી દેવકન્યા નથી
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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