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________________ अनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४९ ष्टुरखरपरुपशुपिराधमुग्ननासिकापुटम् रोपात् क्रोधादिवागतः प्रबलत्या धमधमा यमानः धमधमेतिशब्द कुर्वन् मारुतोवायुनिष्ठुरस्तीत्रः खरपरुपा अतिकर्कशः पर मदुःसहः, शुपिरयो अन्धयोर्यस्य तत्तथा, तदेव भूतम्-अवमुग्न-चक्र नासिकापुट यस्य तथा तम् भस्त्रावद्धमवमायमानश्वासोच्छ्वासपूर्णवक्रनासिकायुक्तमित्यर्थः घाड. म्भडरइयभीमणमुह ' घाटोद्भटरचितभीपणमुख-तत्र घाटाम्या शिरोऽवयवविशेषा भ्याम् उद्भट विकराल दुर्दर्श रचितम् अतएव भीपण भयकर, मुख यस्य स तथा त विकृतभयानकमुखयुक्तम् ' उद्धमुहकन्नसक्कुलिय' ऊर्ध्वमुखकर्णशष्कुलीकम् ऊर्ध्वमुखेवर्णशष्कुल्यौ वर्णपुटौ यस्य स तम् । तथा-'महतविगयलोमसखालग्गलप तचलियकन्न' महाविकृतलोमशालग्नलम्ममानवलितकर्णम् , महान्ति विकतानि असुन्दराणि लोमानि ययोस्तौ महाविकृतलोमानौ, तथा-तौ च शतालग्नौ शङ्क= असिमान्तभागस्तत्रालग्नौ-सलग्नौ सस्पर्शिनौ लम्बमानौ च चलितौ-चञ्चलौ च कणों यस्य स तथा तम् , 'पिंगलदिप्पतलोयण' पिङ्गलदीप्यमानलोचन=पिङ्गले कपिले, था वह ऐसा मालम देता था कि मानों बडे क्रोध से आ रहा है-और इसी लिये वायु भरते समय भस्त्रा (धमनी ) से जैसा बम २ शब्द होते है उसी प्रकार का उस से भी धम धम ऐसा शब्द होता रहता था। वह तीव्र या अतिकर्कश या कठोर या। दुःसह था । उस का मुख शिर के अवयव विशेषो ने ऐसा ही दुर्दश बनाया था कि जिस से वह बड़ा भयकर लगता था। (उद्धमुहकन्नसलिय ) इस के दोनों कर्णपुट ऊँचे उठे हुए ये। ( महतविगयलोमसखोलग्गलबतचलियकन्न ) इन दोनों कानों के रोम इस के महा विकराल थे शख अक्षि प्रान्त भाग तक ये दोनों कान फैले हुए थे। इसीलिये ये बडे लवे थे और चचल थे। નીકળતા હતા તે એમ જણાતું હતું કે જાણે બહુ ફોધમા ભરાઈને તે સામે ઘસી આવતું હોય, એથી જ જ્યારે તે વાસ લેતો હતો ત્યારે ભસ્ત્રા (ધમણ) માથી જેમ “ધમ ધમ શબ્દ થતું રહે છે તેવો જવનિ થયા હતો તે તીવ્ર, કર્ક કઠોર અને દુ મહ હતા તેના મોના કદ રૂપ અવય વિાથી તે દુર્દશ અને મહા ભયકર લાગતું હતું (उद्धमुहकन्नसकुलिय) तेनी १२ त२३नी आनटी 62 64सेसी डती (महतजिगयलोमससालग्गलयतचलियन्न ) मने ४ान ५२ना सारा महावि રાળ હતા આખના ખૂણુઓ સુધી તેના અને કાન ફેલાયેલા હતા એટલા માટે જ એઓ લાંબા અને ચચળ હતા ४४
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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