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________________ अनगारधर्मामृतर्वापणी टीका अ० ८ अहरामचरिते तालपिशाचवर्णनम् ३४१ ___टीका-सर्वैः नौकास्थैः सायात्रिकैः पिगाचरूप दृष्ट, तत्रारहन्नकश्रावकवज्यै यत्कृत तद् दर्शयितुमुक्तमेव पिशाचस्वरूप सविशेष वर्णयन्नाह-'तएण' इत्यादि। ततस्तदन तर खलु तेरहन्नकवा सयात्रानौर्वाणिजकाः वक्ष्यमाणविशे पणक पिशाचस्वरूप पश्यति, दृष्ट्वा च भीतास्त्रस्ता बहनामिन्द्रादीना बहूनि मान्यता शतानि कुर्वन्तस्तिष्ठन्तीति वाक्यार्थः । कीदृश पिशाचस्वरूप पश्यन्ती त्याह-'एग च ण मह ' इत्यादि । एक च खलु महान्त तालपिशाचम् अतिदी. धत्वेन तालवृक्षकारः पिशाचस्तालपिशाचस्तम् पश्यन्ति, कथम्भूत तालपिशाच मित्याह-'तालजय ' इति ताललवदीचे जड्धे यस्य स तारजवस्तम् , दिव गताभ्या-गगनस्पर्शिभ्या बाहुभ्या युक्त, स्फुट शिरस-स्फुट स्फुटित वन्धनरहितत्वाद् विकीर्ण शिरः शिरोजातलाद् केशजाल यस्य स तथा त, 'भमरणिगरवरमा 'तएण ते अरहण्णगवज ' इत्यादि । अय सूत्रकार इसी पिशाच के स्वरूप का पुनः विशेष वर्णन करते हुए कह रहे है कि जितने भी उस नौका में सांयात्रिक थे उन सपने एक अरहनक श्रीवक के विना उस विकराल पिशा च को देखकर क्या २ किया उनकी कैसी स्थिति हुई इस बात को कहने के लिये पहिले वे उक्त पिशाच के स्वरूप को विशेष रूप से पुनः कहते है टीकार्थ-(तएण) इसके बाद (अरहन्नगवज्जा) एक अरहन्नक श्रावक के सिवाय ( स जत्ताणावा वाणियगा ) उन समस्त सांयात्रिक पोत घणिक जनों ने ( एग च ण मह तालपिसाय पासति ) एक बडा ताल वृक्ष के जैसा पिशाच ताल वृक्ष के समान लबी २ जघाओं वाला था। इस के दोनों वाहु मानो आकाश को स्पर्श कर रहे थे। इस के 'तएण ते अरहण्णगना 'त्याह ટીકાર્થ–સૂત્રકાર અહી ફરો પિરાચિનુ સવિશેષવર્ણન કરવાની ઈચ્છાથી કહે છે કે પિશાચને જોઈને અરહનશ્રાવક સિવાયના બાકીના બીજા બધા સાયત્રિકોની શું સ્થિતિ થઈ અને તે વિકરાળ પિશાચનું રૌદ્ર સ્વરૂપ જોઈને તેઓએ શુ શુ કર્યું એનું વર્ણન કરતા પહેલા તે પિશાચના સ્વરૂપનું વિશેષ રૂપથી વર્ણન હું અહી જ છુ तएण" त्या२ मा “ अरहन्नगवरज्जा" १२ नई श्रापना भिवाय "स जत्ताणावा वाणियगा" या सायात्रिपातgs रानी मे " एगच मह तालपि साय पासति" भोट तासवृक्ष २३॥ मने तास वृक्ष की भारी સાથળે વળે પિશાચ જોયો તેના અને હાથ આકાશને સ્પર્શતા હતા છૂટા પડેલા તેના માથાના વાળ
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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