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________________ নাম ध्यदेशभागे-सर्वथा मध्यस्थानभागे पह-गमधरण' गर्भगृहान् अन्त हान् कुरुत । वास भरनानि तेपा च गर्भगृहाणा बहुमन्यदेशभागे जालगृह अत्र ग्रहा न्तर्गत वस्तु यहि स्थिताः पश्यन्ति, तदर्थ कुडवेषु दार्मादिनिमितजालकानि वते. न्ते तद् जालगृह कुरुत तस्य खलु जालगृहस्य बहुमध्यदेशभागे मणिपीठिका मणिमयपीठिका, शुरुत, कृता यावत् प्रत्यर्पयन्ति मल्ली भगवत्या आदेशाद कोटुम्पिकपुरुपा मोहनगृह तत्र मध्यमागे पट्सख्यक गर्भगृह तन्मध्ये मणिमय (तस्स ण मोहणघरस्स यहमज्मदेसभाए 3 गम्भधरए करेह ) उस समोहन गृह के ठीक मध्यमाग में गर्भगृहो को बनाओ (तो सेण गम्भघरगाण परमज्शदेसमा जालधरय करे तस्स णे जाल घरयस्स थमझदेसभाए मणिपेढिय करेर, जाव पच्चप्पिणति ) उन गर्भ गृहों के मध्यभाग में जालघर को यनाओ। जालियों में से जिस घर की वस्तु को यादिर रहे हुए मनुष्य देवि लेते हैं । वर जाल घर करलोते है । ये जालिया भीतो में काष्ट आदि की यनाकर लगाई जाती है। जिस प्रकार मकानो में हवा तथा प्रकाश आने के लिये खिड़कियां आ करती है-उसी प्रकार से ये जालिया भी लगाई जाती है। और उस जाल गृह के ठीक पीच के स्थान में मणिनिर्मित पीठिका को बनाओ। बनाकर पीछे इसकी हमें सूचना दो। इस प्रकार मल्ली भगवती के आदेश को पाकर उन कौटुम्यिक पुरुषों ने १ मोहन गृह, उसके बीच में छ गर्भ गृह उनके बीच में १ जाल गृह और उस के बीच में मणि "तस्सण मोहणगरस्स पहमज्झदेसभाए गम्भघरए करेह" समाउन ઘરને અધવચ્ચે છ ગભ ગૃહ બનાવે (तीसेण गम्भघरगाण बहुमज्झ देसभाए जाव घर य करेह तस्स ण जाल घायस्म बहुमज्झदेसमाए मणिपेढिय करेइ जान पच्चप्पिणति) ગર્ભગૃહોના મધ્ય ભાગમા જાલ ઘર બને જે ઘરની અંદરની વસ્તુઓ ને બહારના માણસો ઘરની જાળીઓથી જોઈ લે છે, તે ઘરને જાળઘર કહે છે જાળીઓ ભી તેમાં લાકડા વગેરેની બનાવીને મૂકવામાં આવે છે. ઘરમાં પવન તેમજ પ્રકાશ ને આવવાને માટે બારીઓ હોય છે, તેમજ જાળીએ પણ મૂકવામાં આવે છે ) આ જાળ ઘરની બરાબર અધવચ્ચે મણિ જડિત પીઠિકા બનાવે આબધુ તૈયાર થઈ જાય ત્યારે મને સૂચિત કરે આરીતે મલી ભગ વતીની આજ્ઞા સાભળીને કૌટુંબિક પુરુષેએ એક સમોહન ઘર, તેની વચ્ચે છ ગર્ભગૃહ, તેની વચ્ચે એક જાળગૃહ અને તેની વચ્ચે મણિ જટિત પીપિકા
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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