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________________ १९८ ताधर्मकथा विविधप्रकारेण चिन्तयति, 'त भणियच तस्माइवितव्यमत्र किनिस्कारणेन मम तातेन श्वसुरेण मा पच शाल्यक्षता दत्ता.,तत्र योऽपि हेतुरस्ति । 'त तद् तस्मास्कारणात् ' सेय' श्रेय मुखकरमेतदेव खलु मम 'एए' पतान् पश्च शाल्य क्षतान् सरक्षन्त्याः । सगोपायन्त्याः सवर्द्धयन्त्याः इति निश्चित्य एव सप्रेसवे पर्यालोचयति, सप्रेक्ष्य च पुलगृहपुस्पान कृषिकर्मनिपुगनिजकुटुम्बपुरुषान् शब्दयति आह्वयति शन्दयित्वा चैत्र क्ष्यमाणमकारेणावाटीद , हे देवानुपियाः यूय खलु एतान् पचशाल्यक्षतान गृहीत गृहीत्वा 'पदमपाउससि ' प्रथम प्रापि चर्पाकाल मारम्भसमये ' महाद्विकायसि ' महारष्टिकाये 'निश्यसि समाणसि' निपतिते सति महावृष्टिरूपेण जलराशि रूपेऽफाये भूमो निपतिते सतीत्यर्थः रोहिणीकाने भी विविधरूप से विचार किया। अन्त में इस निष्कर्ष पर वह पहुँची कि श्वसुरजीने जो ये पांच शाल्यक्षत मुझे दिये हैं और इनकी रक्षा आदि करने के विषय में जो मुझ से कहा है सो इसमे कोइ न कोइ कारण अवश्य है। (त सेय खलु मम एए पच सालि अक्खए सारक्खेमाणीए सगोवेमागीए सवड्डेमाणी त्तिकट्टु एव सपे हेइ) इसलिये मुझे यही सुखकर है कि मैं इन पाच शाल्यक्षतों की रक्षा करूँ इन का सगोपन और सवर्द्धन करूँ। ऐसा निश्चय कर उसने यह पूर्वोक्त रूप से विचार किया। (सपेहिता कुलघरपुरिसे सहावेह) विचार कर फिर याद में उसने कृषिकर्म करने में निपुण अपने कुटुम्ब के पुरुयो को धुलाया। (सदावित्ता एव वयासी) घुला कर ऐसा कहा(तुम्भेण देवाणुप्पिया! एए पच सालि अक्खए गिण्डर गिणिहत्ता पढमपाउससि महाडिकायसि निवइयसि समाणसि खुड्डाग केयार એ નિર્ણય ઉપર આવી કે સસરાએ મને પાચ શાલીકણે આપ્યા છે અને તેની રક્ષા માટે મને જે કઈ કહ્યું છે તેની પાછળ કઈને કઈ કારણ તે ચોક્કસ डायु (त सेय सलु मम एए पच सालि अक्खए सारखेमाणीर स गोवेमाणीए सवइढेमाणीए त्ति कट्टएव सपेहेह), भारी से ३२०४ छ કે હુ તેઓની રક્ષા કરૂ તેઓનુ સેગેપન તેમજ સંવર્ધન કરૂ આ પ્રમાણે २॥डियो से पाय शनि ने भाटे विया२ च्या (स पेहित्ता कुलघरपुरिसे सहावेइ ) पिया२ रीने तेथे कृषि ४२पामा मेटले. मे पामा यतुर या पाताना मना भासान मासाव्य (सहावित्ता एव वयासी) બોલાવીને તેણે આ રીતે કહ્યું(तुभेण देवाणुपिया! एए पप सालि अक्खए गिण्हइ गिणिहत्ता पढम पाउससि महावुड्ढिकाय सि निघइय सि समाण सि खुहाग केयार सुपरिकम्मिय करेह)
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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