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________________ हाताधकपासू 'पाडिहारिय' मातिहारिक-मत्यर्पणीय, पीठफलफशग्यासस्तारक मत्यमे, शैलकस्यानगारस्य पान्थरमनगार 'वेयारचकर 'वैयारत्यार-सेवाकारक, स्थापयित्या बहिरभ्युद्यतेन यावद्-इह यावत्करणात-अभ्युद्यतेन-सोयमेन प्रदत्तेन-तीर्थकरानुज्ञापितेन, प्रग्रहीतेन तीर्थकराङ्गीकृतेन जनपदविहार इत्यस्य सग्रहः । विहर्तुम् -कर्तुम् शैलकानगारस्य वैयारत्याय पान्यामनगार पहिर्षिहर्तुमस्माक श्रेय इत्यर्थ एवम्-उक्तपफारेण ' सपेहेंति' सप्रेक्षन्ते, विचारयन्ति । 'सपेहित्ता' सप्रेक्ष्य विचार्य, कल्ये यावज्जलति-सूर्ये उदिते सति शैलम्मापृउच मातिहारिक-प्रत्य पणीय पीठफलमशग्यासस्तारक 'पञ्चप्पिणति' प्रत्यर्पयन्ति प्रत्यर्य पान्यकमनगार 'वेयावच्चकर' वैयाकृत्यफर, 'ठावति' स्थापयन्ति ठारित्ता' स्थापयित्वा पहिर्यावद्-इह यानरकरणात्-अभ्युद्यतेन प्रदत्तेन, प्रगृहीतेन जनपदविहार इत्यस्य सग्रहः, विहरन्ति । शैलकानगारस्य ये पञ्चशतसख्यकाः पान्थकप्रमुखा अन पाडिहारिय पीठफलगसेज्जासथारग पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पथय अणगार वेयावच्चकर ठवेत्ता पहिया अन्भुज्जएणं जाव पवत्तेण परगरिएण जणवयविहार विहरित्तए) इसलिए हे देवानुप्रियों ! हम लोगों को यही कल्याण कारक है कि प्रात' होते ही हम लोग शैल्क राजऋषि से पूछकर और प्रत्यर्पणीय पीठ फलकशय्यासस्तारक को रखकर वापिस देकर तथा शैलक राजऋषि की वैयावृत्ति करने के लिये पांथक अनगार को रखकर यहा से सोद्यम के साथ प्रदत्त तीर्थकर की दी हुई आज्ञा के अनुसार प्रगृहीत तीर्थ कर की आज्ञा को अगीकार कर ऐसो बाहिर देशों में विहार करें। (एव सपेहेंति, सपेहिता कल्ल जाव जल ते सेलय आपुच्छित्ता पाडिहारिय पीठफलगसेज्जास था रय पच्चप्पिणति, पच्चप्पिणित्ता पथयअणगार वेयावञ्चकर ठावति फल्गसेज्जासथारग पच्चप्पिणित्ता सेलगरस अणगारस्स पथय अणगार , वेयाव च्चकर ठवेत्ता बहिया भन्भुज्जएण जाव पवत्तेण पगहिएण जणक्यविहार विहरित्तए) मेटये पानुप्रिय।। मा५॥ माटे ४८याएन। भाग 2 or રહ્યો છે કે સવારે રોનક રાજકવિની આજ્ઞા મેળવીને પીઠફલક, શય્યા સસ્તા રક વગેરે પાછા આવીને રોનક રાજઋષિની વૈયાવૃત્તિ કરવા માટે પાથક અન ગારને નીમીને Cઘમપૂર્વક આપણે અહીંથી તીર્થકરોની આજ્ઞા મુજબ તેમજ તીર્થકરોની આજ્ઞાનું પાલન કરતા બહારના બીજા દેશમાં વિહાર કરવા નીકળી ५७ एव सपेहेंति सपेहित्ता कल्ल जाव जलते सेलय आपुच्ठित्ता, डियारिय पीठफलगसेज्जासथारय पच्चप्पिणित्ता पथयअणगार वेयावन्चकर ठावति
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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