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________________ १४६ ताधर्मकथा चारित्राराधनार्थ कृत प्रतिज्ञस्य कृतनिधयस्य तदनन्तरद्वितीयेति प्रभातकाले आनु. पूर्ध्या ग्रामानुग्रामविहारार्थ प्रतिरपि पुनः मायचित्तग्रहणमन्तरेण नोपपद्यते । तस्मादत्र मद्यशब्दो नास्ति मदिरार्थकः । किं तु-'मज्जपाणय पीए पुष्यावरण्डका लसमयसि सुहप्पसुत्ते' इत्याग्रिममूळपाठमामाण्यात् निद्राजनरूपानद्रव्यविशेषार्थक एवेति निश्चीयते । वचतः पूर्वापरमूलपाठपर्यालोचनेन 'मज्नपाणय च से उपदिसति' 'जाव. मज्जपाणेण' मज्जपाणए य मुछिए ''सुबह मज्जपाणय पीए' इति -पाठा: प्रक्षिप्ता एवेति मुधियो विमर्शयन्तु । ततस्तदनन्तर तस्य शैलकस्य यथामवृत्तैः मासुकैपणीयैर्यारत्-औषधभैपज्यै ध्याहारैश्च रोगातङ्काः उपशान्ता अभूवन् , हष्टः प्रसन्नचित्तः, मल्लशरीर मल्लवत् उदय होने पर विशुद्ध चारित्र आराधन के लिये कुन निश्चय देवाजाता है और उसके बाद जो द्वितीय दिन प्रातःकाल में आनुपर्ध्या ग्रामानुग्राम विहार की उनमें प्रवृत्ति पाई जाती है वह भी नहीं घटित हो सकती है। कारण प्रायश्चित्त ग्रहण के विना ऐसी प्रवृत्ति होती नहीं है । इसलिये यहां मद्य शब्द मदिरार्थक नहीं हैं किन्तु यह “ मज्ज पाणय पीए पुन्यावरणहकालसमयसि सुरप्पसुत्ते " इस अग्रिम मूल पाठ की प्रमाणता से निद्राजनक पान द्रव्य विशेष अर्थवालो ही है ऐसा निश्चित होता है। तत्वत विचार किया जाये तो पूर्वापर मूल पाठों की पर्यालोचना से “ मज्जपाणय च से उपदिसति जाच मज्जपाणेण, मज्जपाणए य मुच्छिए, मज्जपाणए मुच्छिए, सुबहु मज्जपाणय पीए" ये सब पाठ प्रक्षिप्त ही ज्ञात होते हैं ऐसा बुद्धिमान् जन विचार करें। (तएणतस्स सेलयस्स अहापवत्तेहिं जाव मज्जणपाणेण रोयायके उवसते માટે કત પ્રતિજ્ઞ દેખાય છે અને ત્યાર બાદ તેઓ બીજા દિવસે સવારે જ પૂર્વપરપરા અનુસાર એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવાની ઈચ્છા કરે છે જે આવુ હેત તેમનામાં આવી ઈચ્છા પણ પ્રકટ કેવી રીતે થાત? કેમકે પ્રાયશ્ચિત્ત વગર આવું તે કરી શકે જ નહિ એટલા માટે અહીં મદ્ય શબ્દ मशिना अर्थ सूयवती नथी पY ( मज्जपाणय पीए पुश्वावरण्हकालसमय सि सुहप्पसुत्ते “ भय श५६ भूपाने मनुसक्षी त निद्रा न पान द्रव्य विशेष " म २१ सूयवना छ (मजपाणय च से उपदिसति जाव मज्जपाणेण मज्जपाणए य मुच्छिए मज्जपाणए मुछिए, सुबहुमज्जपाणय पीए ) पूर्वापरनी અપેક્ષાએ મૂળપાઠ વિષે આપણે ગભીર પણ વિચાર કરીએ તો ઉક્ત પાઠ प्रक्षिप्त साग (तएण तस्स सेलयस्स अहापरत्तेहिं जाय मज्जणपाणेण रोया
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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