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________________ भतगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराज पिचरितनिरूपणम् १४३ अन्य पूर्वापरलपाटसमालोचनतोऽप्यत्र मद्यशब्दस्य मदिराधस्त्व न सिध्यति तथाहि यथाप्रवृत्तचिकित्सनै र्यथामटत्तेनौषधभैषज्येन भक्तपानेन चिवित्सामावर्तयामीति स्वीकृत्य मण्डवेन शैल कानगार इत्थ मार्थितः यूय खलु मासुरमेदणीय फीटपलकादिकमवगृह्य विहरतेति, शैल कानगारस्तथेति प्रतिश्रुत्य मण्डूकस्य यानशालाया तथैव विहरतिरम ततोमडकेन चिकित्सका आदिष्टा - मासुकेपणीयेन यावत चिकित्सामावर्तयतेति ततश्चिक्रिसका मण्डकस्याज्ञानुसारेण मासुकै पणीयैरेवोपधादिभिचिकित्सा कुर्वत साधोरक्ल्प्य प्रवचननिषिद्ध माहवेनाप्यना दिष्ट तदाज्ञाविरुद्ध मत्र पाययितुं कथ मवृत्ताः स्युः ! कथमपि न । सकता है अन्यथा नहीं । यही धर्म की मर्यादा है। यहां पर के पूर्वा पर के मूल पाठ के समालोचन से भी मद्यशब्द में मदिरा अर्थ सिद्ध नही होता है । जब महूक राजा ने शैलक राजऋषि के समक्ष यह प्रार्थ ना की कि मैं 'यथा प्रवृत्तेन औषध भैषज्येन भक्तपानेन चिकित्सा आवतयामि' रोगोपशमन करने में समर्थ वैद्यों के द्वारा यथा योग्य निर्दोष प्रासुक औषध भैषज्य से आपकी चिकित्सा वराऊँगा आप मेरी यान शाला में प्रासुक एपणीय पीठ फलक आदि की याचना करके वहां रहें तब इस महूक राजा की प्रार्थना को सुनकर वे शैलक अनगार ' तथेनि ' कहकर उसे स्वीकार कर के वहा उनकी यानशाला में आये । इनके आते ही महक ने वैद्यों को बुलाकर यह आदेश दिया कि आप लोग प्राक एणीय आदि औषध भेषज से इनकी चिकित्सा करें। तथ उन वैद्यों ने भडूक की आज्ञानुसार प्रासुक एपणीय औषध आदि से उनकी चिकित्सा करने लगे । फिर सोचने की घात है कि जब साधु છે અહીં પૂર્વાપરના મૂળપાઠથી પણ મદ્યશબ્દથી મંદિશ વિષેને અ સિદ્ધ થતા નથી. જેમકે મડૂક રાજાએ કૌલક રાજ ઋષિની સામે વિનતી કરતા - ( ययाप्रवृत्तकै चिकित्सकैं यथाप्रवृत्तेन औषधभैषज्येन भक्तपातेन चिकित्सा आवर्तयामि ) रोगोने મટાડનારા સમથ વૈઘોઢારા હુ યથાચિત પ્રાચુક ઔષધ ભૈષજ્યથી તમારી ચિકિત્સા (ઇલાજ) ક઼ગવીશ મારી થગાળામા તમે પ્રાસુ એષણીય પીઠ લક વગેરેની યાચના કરીને ત્યા રીકાઓ ત્યારે મહૂક રાજાની વિન તીને સ્વીકારતા ‘ તથતિ' (મારૂ) કહીને તેઓ તેમની સ્થાળામા આવ્યા રૌલક અનારની ચિકિત્સા માટે મહૂકે વૈકોને ખેલાવ્યા અને ખેલા વીને એમ આજ્ઞા કરી કે તમે પ્રાસુ એવણીય વગેરે ભૈષજયા એમની ચિકિત્સા નારુકા વૈદ્યોપણ મહૂક રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણેજ પ્રાસુ- એષણીય રેથી તેમની ચિકિત્સા ( ઈલાજ ) કરવા લાગ્યા એની સાથે સાથે
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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