SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माताधर्म कथासूत्र सग्रहः । विपुला-विस्तीर्णा आत्ममतिपदेशव्यापिनी, मागाटा प्रर्धमाना तीयतरा, अतएव-दुरध्यामा दुःसहा । वेदनायाः परिणाम प्रदर्शयति-' कडयदाइ' इत्यादि । ' कडयदाह पित्तज्जरपरिगयसरीरे, फण्डकदाहपित्तज्वरपरिगतशरीर:कण्डकेन-कण्हत्या, दाहेन हृदयकरचरणनयनज्यलनेन पित्तरेण च परिगत व्यात शरीर यस्य स तथा, चापि विहरती-मास्ते। ततः सल स शैलकस्तेन रोगा तरून रोगेण सामान्येन व्याधिना, आतङ्केन मालतरेण व्याधिना, च शुको जात थाप्यासीत् । ततः खलु स शैलक 'अन्नया फयाइ' अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् में जो वेदना उत्पन्न हुई वह ( उज्जला जाव दुररिया) यष्टुत अधिक दुखातिशय से वर्धिन थी अतः प्रलय कालीन अग्नि की तरह शरीर को जला रही थी। यहा यावत् शब्द से "विउला पगाढा " इन पदो का संग्रह हुआ है । आत्मा के प्रति प्रदेश में व्याप्त होने से वर वेदना विपुल थी तथा तीव्रतर थी बहुत अधिक दिन प्रतिदिन बढने से वह प्रगाढ थी। इसलिये दुर यासथी पड़ी तकलीफ के साथ वह सरन करने योग्य थी। इस वेदनाजन्य शरीर में क्या २ परिणाम हुआ इस घात को सूत्रकार (कडय दाइपित्तज्जरपरिगयसरीरे ) इन पदों द्वारा प्रकट करते हैं वे कहते हैं कि उन राजऋषि शलक अनगार का शरीर कडयन-खुजली-के दाहसे और पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। हृदय में, हाथों में, चरणो में और नेत्रों में उनके जलन होने लग गई। पित्तज्वर से पित्त में अधिकाधिक गर्मी आ गई- इस से लिया हुआ आहार उन्हें नहीं पचता और वमन द्वारा वह बाहिर निकल जाता या भनो शरीरमा (उज्जला जाव दरहिया) वन भूम या माडी હતી તેથી પ્રલયના અગ્નિની જેમ તેમના શરીરમાં બળતરા થતી હતી અહીં यावत्' शाह थी (विमला पगाढा) मा पहानी सड था'छे आमा ના બધા પ્રદેશમાં વેદના વ્યાપ્ત થઈ હતી તેથી તે “તીવ્રતર” હતી દિવસે દિવસે વેદના વધતી જ જતી હતી તેથી તે “પ્રગાઢ હતી એટલા માટે જ વેદના દુરધ્યાસ એટલે કે બહુ કદથી સહ્ય હતી વેદનાને લીધે રાજ ષિના शरीरनी खासत ते सूत्र १२ डी २५४ ४२ता ४ छ (क डुय दाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे) राषि मना२नु शरी२ यन-१२ જવાની પીડા અને પિત્તના જવાથી પ્રાપ્ત થઈ ગયું તેમને છાતીમાં હાથમાં, પગમાં અને આખામાં બળતરા થવા માંડી પિત્તજવર થી પિત્તમાં ગરમીનું પ્રમાણ વધી જવાથી કરેલા આહારનું પાચન થતું નહિ અને તે ઊલટી થઈને બહાર નીકળી જતે હેતે ખાવાપીવા તરફ તેમને સાવ અણુ
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy