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________________ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे $ " पक्षपरिग्रहोऽन्यतर दूपयिष्यामीत्याशयः । स्थापत्या पुनो हति- 'सुया' इत्यादि । हे शुक ! एकोऽहम्, द्वाप्यहम् यावत्- अनेक भूतभा प्रभवि कोऽप्यहम् । पुनः शुकः पृच्छति - ' से केणद्वेण भते !' इत्यादि । तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुन्यते - एकोऽप्यह यावत्- अनेकभूतभावभविकोऽप्यहम् ? १०६ .. • अवस्थित है, नित्य है 'अणेगभूयभावभविए वि भव' अनेक भूत, भाव और भविक पर्यायों वाला है अनित्य है भूत शब्द का अर्थ - अतीत, भाव का अर्थ वर्तमान एव भविक का अर्थ भविष्यत कालीन है अर्थात् आत्मा के भूत पर्याय रूप अश वर्तमान पर्याय रूप अश तथा भविष्यत काल में होने वाले पर्याय रूप अश उस के अवधव, रूप है । इससे आत्मा में अनित्यता सिद्ध होती है। इस तरह शुक ने स्थापत्या पुत्र अनगार के इन समस्त पक्षों को दूषित किया । नित्य • पक्ष अनित्य पक्ष साथ विरूद्ध पड़ता है और अनित्य पक्ष नित्य पक्ष के साथ विरुद्ध पडतो है इत्यादि । अब स्थापत्यापुत्र अनगार स्याद्वाद - सिद्धान्त के अनुसार उत्तर देते हैं । ( सुया एगे वि अह दुवेवि अह जाव अणेग भूयभाव भविवि अह ) हे शुक। मैं एक भी हॅ, मे- दो भी हूँ, यावत् अनेक भूत भाव भविक पर्यायों वाला भी हूँ (सेकेण द्वेण मते एव चुन्चइ, एगे चि अह जाव अणेगभूयभावभविए वि छे ( अवट्ठिए भव ) आत्मा अवस्थित छे नित्य है, ( अणेगभूयभावभत्रिए विभव) अने लृत, लाव भने लावि पर्याय वाणी छे मनित्य छे, मृत શબ્દના અથ ભૂતકાળ છે. ભાવ રાખ્તના અથ વતમાનકાળ અને ભાવિક રા અથ ભવિષ્ય કાળ થાય છે, એટલે કે આત્માના ભૃત પર્યાય અરા, વમાન પર્યાય અશ તેમજ ભવિષ્યમાં થનારા પર્ષીય રૂપ અશ તેના ( આત્માના ) અવયવ રૂપ છે એથી આત્મમા અનિત્યતા સિદ્ધ થાય છે આ રીતે શુક પરિવ્રાજકે સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારના બધા પક્ષેાને સદોષ સિદ્ધ કર્યાં, આત્મા વિષે નિત્ય અને અનિત્ય આમ ખને પક્ષે એક બીજાથી વિરૂદ્ધ છે આ પ્રમાણે જ અનિદ્ધપક્ષ નિત્યપક્ષ ની સાથે વિરુદ્ધ છે. પાપુત્ર અનગાર સ્યાદ્વાદ સિદ્ધાન્ત મુજબ શુકપરિવ્રાજકને જવામ भापता हे छे - ( सुया एगे वि अह दुवेवि अह जाव अणेगभूयभाविभावि रवि अह ) હૈ 1 શુક डोड પુછુ છુ, હું એ પણુ છુ, અને હુ અનેક ભૂત, ભાવ તેમજ ભવિક પર્યાય वाणो पशु छ ( से केणट्टेण भते एत्र वुच्चर, एगे वि अह जय अणेभूय भावभवि वि अह ) शुद्धे स्थापत्यापुत्र मनुगारने उधु में हे महन्त । 2
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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