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________________ १०२ मकथा ये ते 'अणेसणिज्जा' अनेपणीयास्ते खलु अभक्ष्याः । न खलु ये ते 'एसणिज्जा' एपणीया , ते द्विविधा प्राप्ताः-तद् यथा-लयात्र अलन्याश्च । तत्र खलु ये तेभरब्धास्ते अभक्ष्याः । तत्र खलु ये ते लब्धास्ते अमणाना निर्ग्रन्थाना भक्ष्याः हे शुक ! एतेनायेंन उक्तरूपेण अर्थेन उक्तार्थमादायेत्यर्थ , एवमुच्यते 'सरिसवया' सरिसायशब्दाच्या अर्था भक्ष्या अपि अभक्ष्या अपीति । ___ 'एव कुलत्या विभाणियव्या' एक उक्तमकारेण कुठस्था अपि भणितव्याः, 'नवेर' विशेष. इद नानात्व स्वीकुलस्थाश्च धान्यकुलत्याच । स्त्रीकुलस्था त्रिविधा योग्य नहीं हैं। प्राप्तुक धान्य सरिसक्य दो प्रकार के है जैसे याचित और अयाचित । इन में भी जो अयाचित हैं वे अभक्ष्य हैं- श्रमण निर्ग्रन्थों को साने योग्य नहीं है । योचित एपणीय और अनेपणीय के भेद से दो प्रकार के हैं (तत्यण जे ते अणेसणिज्जाते ण अभक्खेया) इन मे जो अनेषणीय धान्य सरिसवत्र है वे अखाद्य है । (तस्थण जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पनत्ता लहाय अलद्वाय, तत्यण जे ते अलद्वा, ते अभक्खेया, तत्थ ण जे ते लद्धा ते समणाण निग्गधाण भक्खेया) जो एपणीय सरिसवय हैं ये रप और अलब्ध के भेद से दो प्रकार के हैं- अलब्ध अभक्ष्य और लब्ध श्रवण निर्ग्रन्थों को भक्ष्य हैं । ( एएण अटेण सुया एच बुच्चति-सरिसवया- भरखेया वि अभक्खेया वि एव कुलस्था वि भानियवा) हे शुक! सरिसक्य पद के इन पूर्वोक्त अर्थों को लेकर ऐसा में कहता हूँ कि सरिसक्य भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी है। इसी तरह " कुलत्या" के विषय में भी ऐसा ही सम झना चाहिये । (णवर इम नाणत्त) परन्तु इस मे इस तरह विशेषता પ્રકાર છે-વાચિત અને અયાચિત, આમાં અયાચિત સરિસવય અભક્ષ્ય ગણાય છે શ્રમણ નિર્ચ થે આહારમાં અયાચિત સરિસવયને પ્રવેગ કરતા નથી (तत्थण जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पत्ता लद्धा य अलद्धाय, तस्थण जे ते अलद्धा, ते अभक्खेया, तत्थण जे ते लद्धा ते समणाण निग्गयाण भक्खेया) એષણીય (ઈચ્છનીય) સરિસવયના લબ્ધ અને અલબ્ધ બે પ્રકારો છે નિર્ચ ને માટે અલખ્ય સરિસવય (સરશિય) અભક્ષ્ય છે અને લબ્ધ સરિતવય लक्ष्य छ (एपण अटेण सुया एव वुच्चति सरिसवया भक्खया वि अभक्खेया वि एघ कुस्त्या वि भाणियवा) शु! म प्रभारी सरिसक्य ने पूर्वात રીતે અર્થ સ્પષ્ટ કરતા તેને ભક્ષ્ય અને અભક્ષ્ય આમ બંને રીતે કહી શકાય मा शत 'सत्या' ना विचे ५९४ समझ न (णवर इम नाणत )
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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