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________________ १०० हाताधर्मकथा मिन सदृशयम , धान्यमर्पपकाश्च । ' सरिसपया' इत्यम्य द्विविधोऽयः सदृशव यस सर्पपकावेति । तत्र सदृशवयसो मिनरूपा सर्पपकास्त धान्यरपा इति भावः। तत्र खलु ये ते मित्र सदृशपयसा मिनरूपाः समानश्यसस्ते निरिधाः प्राप्ताः प्रतियोधिप्ताः तद् यथा-' सहनायया' सहजातका समानकालजन्मानः, 'सहवडियया' सह पर्धितकाः समानकाले वृद्धि प्राप्ताः, 'सह परकीलियया' सह पासु क्रीडितकाः सहै। यूलिझोडाकारिणश्चेति । वे सो मित्ररूयाः सदृशायस्का' खलु श्रमणाना निर्ग्रन्थानामभक्ष्याः भोक्तु न कल्पन्ते । तर ग्वलु ये ते धान्यसर्पपदो प्रकारसे प्रज्ञप्त हुआ है-१ मित्रसरिसवय दूसरा धान्य सरिसवय- मरिसवय शब्द की ' सदृशवय" और मर्पपक" इस प्रकार संस्कृत छाया होती है। जब सदृशयय-समान आयुवाले मित्रजन -ऐसा छायार्थक "सरिसवय" पद लिया जाता है-तर उस पक्ष के अनुसार सरिसवय अभक्ष्य है ऐसा अर्थ बोध होता है तथा सर्वपक छायोर्थक जप सरिसवय पद लिया जाता है ता" सरिसवय" भक्ष्य भी है ऐसा अर्थबोध होता है। इसी विषय को अधिक और स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि- (तत्व ण जे त मित्त सरिसवया ते तिविदा पनत्ता, जहा- सह जायया, सह सवडियया, सहपसुकीलियया ते ण समणाण निग्गथाण अभक्खेया) इनमे जो मित्र सरिसवय हैं वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हुए हैं- जैसे सह जातक, सत्यधितक, सह पासुक्रीडितक अपने माय जिनका जन्म हुआ हैं वे सहजातक हैं । अपने साथ २ जो वृद्धि को प्राप्त हुए हे वे सहवर्धित हैं । तथा जो भित्र, सरिसक्य, २ धान्य, 'सरिसक्य ' शनी सस्कृत छाया १, सशक्य, અને ૨, સર્ષક બે રીતે થાય છે જ્યારે સરિસવય ને “શદશવય” ( સર ખી આયુષ્ય ધરાવનારા મિત્ર જન) આ અર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્યારે “સરિસવય અભક્ષ્ય છે આ અર્થ જણાય છે તેમજ “સરિસય. પદ સર્ષક ( સરસિયુ ) અર્થમાં લેવાય છે ત્યારે તે ભફ છે આવે પણ मथ थाय छे मेरा पातने विशेष २५०८ ४२॥ सूत्र॥२४ छ । (तत्थण जेत मित्त सरिसरया ते तिविहा पन्नत्ता, तजहा-सहनायया, सहसवढियया, सहप सुकीलियया तेण समणाण निग्ग थाण अभक्ग्वेया) मामा यारे सरिसवय શબ્દને અર્થ મિત્ર હોય છે, ત્યારે તેના ત્રણ પ્રકાર સમજવા જોઈએ જેમકે ૧, સહજાતક૨, સહવર્ધિત, અને ૩, સહપાસુકીડિતક આપણી સાથે જન્મ લેનાર સહજાતક કહેવાય છે. આપણે સાથે મોટા થનાર સહવર્ધિત
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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