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________________ भाताधर्मपथासूत्रे द्वन्द्वः रोगा दाहज्वरादयः, आतङ्काः शीघ्रघातिनः लूलादयः गो उदीयन्ते,तन् अन्यावाध-व्यानाधाना शरीरपीड़ानामभावः मम पर्वते. । शुकः पृच्छति-से कि ' इत्यादि । अथ कोऽसौ भद त' मामुक विहारः।? ___ स्थापत्यापुगो वदति-'मुया' इत्यादि । हे शुक! यत् यस्मात् खलु आरा मेपु-उपवनेषु, उद्यानेषु पुष्पप्रधानेपु राजपनेपु. देवकुलेषु व्यन्तरायतनेषु, समासु परिपत्सु 'पापमु' पर्वतेषु इदमुपलक्षण तेनायादशरथानेषु इत्यर्थ । स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितासु वसतिपु प्राविहारिक-पुनः समर्पणीय, पीठफलाशग्यासविविहा रोयायका नो उदीरेंति से त अव्यागाह से कि त भते फायविहार आरामेसु उजाणेस्तु देवउलेसु, सभालु, पन्वएतु, इत्थी पसुपडग विवज्जियासु वसहीस्लु पाडि हारिय पीठफलग सथारय उग्गिण्डित्ता ण विहरामि सेत्त फायविहार ) शुक ! जिस कारण से वात, पित्त और कफ से जनित तथा इन तीनों के सन्निपात से जनित जो विविध प्रकार के दाहज्वर आदि रोग शीघ्र घातक शूलादिक आतक मुझे उदित नहीं हो रहे है यही अव्यायाध मेरे वर्त रहा है। व्यायाध शब्द का अर्थ शारीरिक पीडा है-- और इस का अभाव इस समय मेरे में वर्त ररा है। यही अव्यावाध का स्वरूप है। हे भदन्त ! प्रासुक विहार का क्या स्वरूप है ? उत्तर-हे शुक! जिस कारण मैं उपवनो मे पुष्प प्रधान राजकीय बनो में देवघरों में अर्थात् व्यन्तरायतनो में परिषदो में पर्वतों में ऊपलक्षण से अठारह स्थानों में, स्त्री, पशु, पडक-नपुसकों से विहीन वसतिओं में मठों में रोयाय का नो उदीरे ति से त अन्वावाह से किं त भते पासुयविहार आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पव्वएसु इत्थी, पसुपडगविविज्जियासु वसहीसु पाडिहारिय पीठफ्लगसेज्जासथारय उम्पिण्हिताण विहरामि से त फासुयविहार) હે શુક! વાત, પિત્ત અને કફથી જન્મતા તેમજ આ ત્રણેના સન્નિ પાતથી ઉદ્ભવતા અનેક દાહજવર વગેરે, રોગ શીઘઘાતક શૂળ વગેરે આતક મારા શરીરમાં ઉદ્ભવતા નથી એજ અવ્યાબાધ મારામાં જતી રહ્યો છે અવ્યાબાનું સ્વરૂપ એજ છે શુકે સ્થાપત્યા પુત્રને બીજો પ્રશ્ન કર્યો –હે ભદત ' પ્રાસુક વિહારનું સ્વરૂપ શું છે? તેને ઉત્તર આપતા સ્થાપત્યા પુત્ર કહે છે–હે શુક ! હું ઉપવનેમા, પુષ્પ પ્રધાન રાજકીય નેમ, દેવ ઘરમાં એટલે કે વ્યતરાયતનેમા, પરિષદમા પર્વતેમા-ઉપલક્ષણથી અઢાર થામાં સ્ત્રી, પશુ,પડક, નપુસક વગરની વસ્તીઓમા મઠમા પ્રાતિહારિક
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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