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________________ अनगारधर्मामृतवपिणी रीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्टीवर्णनम सन् सुख सुखेन विहरन् . इति सग्रहः । दह-सौगन्धिकानगर्यामागतोऽस्ति, इहैव अस्यामेव नगर्या पहिभांगे नीलाशोके नीलाशोकनाम्नि उद्याने विहरति, तस्य= स्थापत्यापुत्रस्य खलु अन्तिके समीपे विनयमूलो धर्मः प्रविपन्नः मया स्वीकृत । यदा स्थापत्यापुत्र इहागतम्तदाऽहमपि वदितु तत्रगतस्तदा तदुपदिष्टधर्मस्था श्रुत्वा विनयमूलमाहत्तपर्म समीचीन विज्ञाय स एव धर्मः स्वीकृतो मयेतिभाव ॥२२॥ मूलम्-तएणं से सुए परिव्वायए सुदसणं एव वयासीत गच्छामो सुदसणा। तव धम्मारियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतिय पाउभवामो इमाइ च णं एयारूवाड अहाइं हेउइ पसिणाइ कारणाइ वागरणाइ पुच्छामो, त जइणं मे से इमाइ अट्टाइ जाव वागरइ, तएण अह वदामि नमसामि अहमेसे इभाइ अट्टाइं जाव नो से वाकरेइ, तएण अह एएहि चेव अटेहि हेउहिं निप्पट्रपसिणवागरणं करिस्सामि ॥ सू० २३ ॥ अतेवासी स्थापत्या नाम के अनगार मुनि परपरा के अनुसार चलते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए सुस पूर्वक इस सौगधिका नाम की नगरी में आये और अब वे नीलाशोक नाम के उद्यान में ठहरे हुए हैं। (तस्सण अतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) उनके पास मने विनय मूल धर्म समीचीन समझ कर स्वीकार कर लिया है। तात्पर्य इसका यह है कि में भी उनको वदना करने के लिये गया था। उन के मुख से जर मैंने धर्मकथा सुनी तर मुझे उनका सिद्धान्त निर्दोष युक्ति शास्त्र से अविरुद्ध प्रतीत हुआ अतः मैने उनसे उनके उस धर्म को अगीकार कर लिया है । सूत्र ॥२२ ।। અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુના એ તેવાસી (મિધ્ય) સ્થાપત્યા પુત્ર નામના અન ગાર મુનિ પર પરાને અનુસરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતા સૌગ ધિકા नगरीमा सुमेथी माव्या भने भए। नीमा धानमा Gतय छ (तस्स ण अतिए विणयमूले धम्मे पटिवन्ने) तेमनी पाने में मापे ममलने વિનય મૂવક ધર્મ સ્વીકાર્યો છે તાત્પર્ય એ છે કે , પણ તેમને વદન કવ્વા ગર્યો હતે તેમના શ્રીમુખથી મેં ધર્મકથા સાંભળી મને તેમના સિદ્ધાતે નિર્દોષ તેમજ શાસ્ત્ર સમ્મત લાગ્યા એથી મે તેમની પાસેથી આ धर्म:-पीया छ । सूत्र २२ ।।
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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