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________________ झाताधर्मकथासूत्रे ततः स्थापत्यापुनपचनश्रणानन्तर ग्बल स सुदर्शः समुद्धः सम्यक्त्वमान्दः सन् स्थापत्यापुत्र पन्दते श्रुतचारिनरक्षणसमममाराधनेन धन्योऽसि भगाभित्यादिवाक्येन स्तोति इत्यर्थः । नमस्पति स्वापापं गोधपन् अदेयपचनतया गुरू भावेन पिनय प्रकटयन् कायेन प्रणमतीत्यर्थः । वन्दित्वा नत्या एवम्वक्ष्यमाण प्राकारेणावादी-छामि खलु भदन्त ! हे भगवान् ! धर्म-विनयमूलक भवदुक्त श्रुतचारित्रलक्षण श्रुत्वा ज्ञातुम् , जीवाजीवपुण्यपापासपसरनिर्जरासन्धमोक्षरूपाणि तत्वानि सम्यक सर्वथा वेत्तुमित्यर्थः यावत्-यापत् करणादन धर्मश्रवणजीवाजी वादितत्त्वज्ञानानन्तर श्रावधर्मस्वीकारेण, श्रमणोपासमोजोत , स कीदृश इत्याह -अधिगतजीवाजीवो यावत् प्रतिलाभयन् सत्कारयन् समानयन् विहरति ॥२१॥ से सुदसणे सयुद्धे थावचा पुत्त बदह नमसड, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी) इस प्रकार सपोधित हुए सुदर्शन सेठने स्थापत्यापुत्र अनगार की हे भगवान् श्रुतचारित्र रूप धर्म के आरा न करने वाले होने से आपको धन्य है इत्यादि बचनो द्वारा वदना की नमस्कार किया। वदना नमस्कार कर फिर उसने उनसे इस प्रकार कहा (इच्छामिण भते ! धम्म सोच्चा जाणित्तर जाव समणोवासए जाए-अहिंगया जीवा जीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरड ) हे भदत ! विनय मृलक श्रुतचारित्र रूप धर्म को सुनकर में जीव, अजिव, पुण्य, पाप, आरव, सवर, निर्जरा एव मोक्ष इन तत्त्वों को जानना चाहता है। इस प्रकार वह धर्मश्रवण और जीवाजीवादितत्वो के बाद श्रीवक धर्म स्वीकार कर श्रमणो पासक बन गया। श्रमणोपासक बनकर फिर उसने स्थापत्यापुत्र अनगार का आहार आदि प्रदान कर सरकार किया-सन्मान किया। કર્યા વદના અને નમસ્કાર કરીને તેમણે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારને વિનતિ કરી -(इच्छामि ण भते । धम्म सोच्या जाणित्तए जाय समणोवासए जाए अहिगय जीवाजीवे जार पडिलाभेमाणे विहरइ) 8 मत ! विनरभूत श्रुतयारित्र રૂપ ધર્મની વાત સાંભળીને હું હવે જીવ, પુણય, પાપ, આસવ, સવર, નિર્જરા, બધ અને મોક્ષ ચા આ તને સ્પષ્ટ રૂપે સમજવાની ઈચ્છા રાખુ છુ આ પ્રમાણે સ્થાપત્યા પુન અનગર ના મઢેથી આ બધા જીવ અજીવ વગેરે તો વિષે સાભળીને શેઠ શ્રાવક ધર્મ સ્વીકારીને શ્રમણોપાસક થઈ ગયા શ્રમણે પાસ થઈને શેઠે સ્થાપત્યા પુત્ર અનગારને આહાર વગેરે અપીને સત્કાર કર્યો સન્માન કર્યું
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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