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________________ فقا अनगारधामृतपपिणी टीका अ.५ सुदर्शन ठोवर्ण नम् सोए य इत्यादि एव खलु जीया जलाभिसेयपूयप्पाणो अपिग्येण ' इति पर्यन्त वाच्यम् । ततः खलु स्थात्यापुन सुदर्शनमेवमवादीत-मुदर्शन ! तद् यथानामकः कश्चित् पुरुप एक महद् 'रुहिरकय ' रुपिरकृत शोणितलिप्त वस्ख रुपिरेण चैव शोणितेनैव 'धोवेज्जा' धावयेत् प्रक्षालयेत् तदा खलु सुदर्शन । तस्य रुधिरकृतस्य वस्त्रस्य प्रक्षाल्यमानस्यास्ति-भान्ति काचित् ' सोही' शोधि शुद्धिः निर्मलता, 'जो इणहे सम? ' नायमर्यः समर्थ रुधिररिप्त वस्त्र रुधिरेणैव प्रक्षालित सन् पवित्र मातीत्ययमयः समर्थो न भवति मामाणिकी बुद्धिमुपगन्तु न शक्नोतीत्यर्थः । हे सुदर्शन । एवमेन 'तुभपि' तवापि 'पाणाइवाएण' प्राणातिपातेन यावन्मिध्यादर्शशल्येन नास्ति शोधि', सुदर्शन ! अय यथानामकः कश्चित् पुरुपः दवसोए य भावसोण्य" इत्यादि से लेकर " एव खलु जीवा जला भिसेयपूयप्पाणो अविग्घेण" (तएण धावच्चापुत्ते सुदसणं एव वधासी) इस प्रकार सुदर्शन का कथन सुनकर स्थापत्यापुत्र अनगारने उस सुदर्शन से इस प्रकार कहा-(सुदसणा! से जहानामए केहपुरिसे एग मह रुहिरकय वत्य हिरेण चेव धोवेज्जा तएण सुदसणा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्यस्म महिरेण चेव पक्वालिज्जमाणस्स अत्यिकाइ सोही!) हे सुदर्शन ! जैसे कोई पुस्प एक बड़े भारी रुधिर लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोवे तो रुधिर (खन) से प्रक्षाल्यमान उस वस्त्र की शुद्धि होती है जैसे (णो इणटे समहे) यह अर्थ समार्थित नहीं होता-रुधिर से लिप्स हआ वस्त्र रुधिर से धोने पर साफ-शुद्ध होता है-जैसा यह अर्थ प्रामाणिक बुद्धि द्वारा मा य नही होता है (एवामेव सुदसणाऽ तुम्भपि पाणाहवाण जावमिच्छादसणसल्लेण नत्यि सोही जहा तस्स सरिरकयस्स वत्यस्स सहिरेण चेव पखालिजमाणस्म नत्यि सोही) ६व्यस्रोए य भावसोए य" मडी थी “ एव सलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेण" मही सुधा सुशननु ४थन समान (तएण थावच्चा पुत्ते सुद सण एव क्यासी) माते सुहसननी शीय भू मायनी वात सामजान स्थापत्या पुत्र मनगारे तेमने मा प्रमाणे धु-(सुद सणा | से जहा नामरा केइ पुरिसे एग मह रहिरकय वत्य रुहिरेण चेव धोवेज्जा तएण सुदसणा ? तस्स रुहिरकयस्स ववास रहिरेण चे पसालिज्जमाणस अधिकाइ सोही ) હે સુદાન ! કે ઈ પુસ્ય લેહીભીનુ મેટુ લૂગડુ લોહીથી જ માફ કરે છે તે बोलीथी मा ४३९ दूगड शु शुद्ध थरी । (जो इणद्वे समटे ) म सही ભીનું લૂગડુ લેહીથી થાય જ નહિ આ વાત પ્રામાણિક બુદ્ધિથી ગમે तेने शमतो ५४ मा य थाय । न ( एवामेन सुद सणा ? तु भपि पाणाइवाएण जाव मिच्छाद सणसल्लेण नथि सोही) ते शते सुरान तारी ५९
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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