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________________ भाताधर्मकथासू ७२ दनन्तर खलु स्थापत्यापुत्रः सुदर्शनेनैवमुक्तः सन् सुदर्शनमेवमवादीदहे सुदर्शन ! अस्माक धर्म' दुर्गतौ पततो जन्तून् धरति रक्षति शुभस्थान प्रापयति इति धर्मः आचार, विनयमूला-विनयति अपनयति नाशयति सकनकेशकारकमविध कर्म यः स विनय कर्मापन यनसमर्थचारित्रलक्षणोऽनुष्ठान विशेषः स एव मूल कारणं यस्य स तथा उक्त चकर्मणा द्राग् विनयनाद् विनयो विदुषां मत । अपवर्ग फलादयस्य मूल धर्मतरोरयम् ॥ १ ॥ इति । चारित्रमाश्रित्य व्धस्थितिष इत्यर्थ, यद्वा विनयो विनीतता द्रव्यभावास्यां नम्रता तन्मूलकः, प्रज्ञप्तः = तीर्थकरै मरपितः । सोऽपि च विनयो द्विविधः तद्यथाकहा ( तुम्हा ण कि मूलए धम्मे पनन्ते ) हे भगवान ? आपका धर्म किं मूलक प्रज्ञप्त हुआ हैं । (तएण धविच्चापुस्ते सुदसणेण ण्व बुत्ते समाणे सुदसण एव वयसी) इस प्रकार सुदर्शन सेठ के द्वारा इस प्रकार पूछे गये स्थापत्या पुत्र अनगार ने उससे इस प्रकार कहा (सुदसणा अम्हाण विणमूले धम्मे पन्नत्ते) हे सुदर्शन हमारा धर्म-विनय मूलक प्रज्ञप्त हुआ है । दुर्गतिमे जाने से जो प्राणियो को बचाता है और शुभ स्थान में उन्हें पहुँचाता है उसका नाम धर्म-आचार है । सकल क्लेशोंका दाता जो अष्ट प्रकार का कर्म है उसे जो नाश करता है उसका नाम विनय है । ऐसा विनय चारित्र रूप अनुष्ठान विशेष है। यह विनय ही धर्म का मूल कारण कहा गया है कहा भि है जिसके द्वारा जीव झटिति कर्मों का नाश कर देता है तथा अपवर्ग रूप फल से युक्त हुए जो धर्मरूपी वृक्षका मूल है - वही विनय है । ऐसा विनय चारित्र रूप ही माना गया है किं मूल धम्मे पन्नत्ते ) हे भगवान | आपना धर्मना भूजलूत सिद्धान्तो शु छे (तरण थावच्चापुत्त सुदसणेण एव वुप्त समाणे सुद सण एव वयासी ) સુદર્શન શેઠના આ પ્રશ્નને સાભળીને સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારે જવાખમાં तेभने उ ( सुदत्रणा अम्हाण विणण्मूले धम्मे पन्नत्ते ) हे सुदर्शन ! सभाग ધર્મના આધાર વિનય મૂલક છે. દુગતિમા જતા પ્રાણીઓને જે અટકાવે છે અને શુભસ્થાનામા તેમને લઈ જાય છે તે ધમ-આચાર કહેવાય છે. સમ સ્ત કલેશાને ઉત્પન્ન કરનાર આઠ પ્રકારના કર્મોને જે નાશ કરે છે તેનુ નામ • વિનય ’ છે. એવુ જ વિનય ચારિત્ર રૂપ અનુષ્ઠાન વિશેષ છે આ વિનય જ ધર્મનુ મૂળ કારણ છે કહ્યુ છે કે જેના વડે જીવ જલદી કાંના નાશ કરે છે તેમજ અપવર્ગ (મેાક્ષ) રૂપી વૃક્ષનુ જે મૂળ છે તે ‘વિનય’ જ છે આવા विनय चारित्र ३५० गाय छे ( से विय विणए दुविहे पण्णत्ते ) ते विनय
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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