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________________ ७७६ ज्ञाताधर्मकथासूत्रे विचारयति, सप्रेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चाणुतानि सप्तगिक्षानवानि आरोहति = धारयति स्वीकरोतीत्यर्य । आरा=द्वादशतान्यङ्गीकृत्य, उममेतद्रूप = त्रक्ष्यमाण स्वरूपम्, अभिग्रहमभिगृहाति-कलाने मे यावज्जीव 'उठउद्वेग 'पठपट्टभक्तेन, 'अणिक्खित्ते ' अनिक्षिप्तेन - अन्तररहितेन अविश्रान्तेनेत्पर्थ तप कर्मणाss त्मान भावयत'आत्मनः शुभपरिणाम वर्धयतः, वितुं कल्पते इति पूर्वेण सम्बन्धः । अपि च- पष्ठस्यापि पृष्ठभक्तस्यापि च पारण के कल्पते मे नन्दायाः पुष्करिण्याः ' परिपेरतेसु' परिपर्यन्तेषु = तटेषु = मासुकेन भचितेन, स्नानोदकेन 'उम्मदणो होलि पाहि य' उमर्दनो होलिताभिः = उद्वर्तनादुरिताभिः लोकेंदहोद्वर्तने कृते सति शेषभूता इतस्ततः पतिता या पाचूर्णादिनिर्मितपिष्टिकास्ताभिरित्यर्थ, कल्पयत शरीरयानानि कुर्वत हि कल्पते इति पूर्वेणान्वयः । इममेत , ( एव सपेवेइ, सपेरित्ता पुनडियन्नाह पचाणुव्वया सत्त सि क्वावयाह आरहेट, आरुहिता इमेयान्व अभिगह अभिगिष्टइ-कप्प मे जाव जीव छट्ठ छट्ठेण अणिक्खित्तेण तवो कम्मेण अप्पाण भावेमा णस्स वित्तिए) इस प्रकार उसने विचार किया । विचार करके पूर्व प्रतिपन पच अणुवनों को मात शिक्षाव्रतों को उसने स्वय धोरण कर लिया । धारण करके फिर उसने इस प्रकार का नियम ले लिया कि मैं अब जीवन पर्यत अन्तर रहित पष्ठ षष्ठ भक्त की तपस्या से अपने आत्मपरिणामों को बढाता रहूँगा । (छट्टस्म वियण पारणगसि कप्पइ मे दाए पोखरणीए परिपेरते कारण पहाणोदण्ण उम्मदणोहोलियाहि य विति कप्पेमाणस्म विहरित्ता, इमेयात्व अभिग्गह अ भिगेort, जारज्जीवाए छट्ठ छद्वेण जाव विहरइ ) और छह भक्त की हित्ता पुव्व पडिवन्नाइ पचाणुव्वयाइ सत्तसित्खावयाइ आरुहेइ, आरुहित्ता इमेयारूव अहि अभिगिन्हइ, कप्प मे जाव जीत्र छड उद्वेण अणिसित्तेन तवोकम्मेण अप्पाण भावेमाणस्स विद्दरित्तए) मा रीते तेथे विचार ज्यों विचार કરીને પૂર્વ ભવમા સ્વીકારેલા પાચ અણુતા અને સાત શિક્ષાવ્રતાને તેણે પેાતે જ ધારણ કરી લીધે ધારણ કરીને તેણે એ જાતના નિયમ લીધા કે હવે જીવનની છેલી પળ સુધી અન્તર રહિત ષ ષષ્ઠ ભક્તની તપસ્યા વડે भारा आत्म परिणाभोनी वृद्धि उरतो रहीश ( छट्टस्म वियण पारणगवि कप्पड़ मे पोक्सरणीए, परिपेर तेसु फमुण्ण ण्हाणोदएण उम्मद्दणोल्लो ण दाए लियाहिय वित्ति कल्पेमाणरस विहस्तिए, इमेयारून अभिग्गह अभिगेण्हइ, जाव जीवाए ठु छटुण जाव विहरइ ) भने छ लातनी पारगाना नही
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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