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________________ ७७० बाता कथासूत्रे सापते मज्ञापयति प्ररूपयति-वन्य. सल हे देवानुप्रिय ! नन्दो मणिकाररश्रेष्ठी यस्य खलु इयमेतदूपानन्दापुर करिणी चतुः कोणा समतीरा यात्र प्रतिरूपा वर्तते, यस्याः खलु नन्दायाः पुष्करिण्या पौरस्त्ये नपण्टे चिनमभाने स्तम्भगतसनि विष्टा तथैव चतुर्षु चनपण्डेषु चतस्रः सभा जनेकस्तम्भशतसनिविष्टाः सन्ति, यावत् तस्य नन्दमणिरष्टिनः खुलब्ध मानुष्यक जन्मजीवितफलम् । हायमाणो य पिग्रह य पाणिय च मत्रह्माणो अन्नमनस्एवमाहखइ ४ ) उस नदा पुष्करिणी में जन राजगृह नगर के लोग आकर स्नान करते, पानी पीते, उसमे से पानी भरते तो उस समय वे परस्पर में इस प्रकार से बात चीत करते, भाषण करते प्रज्ञापना एव प्ररूपणा करते कि ( धन्नेण देवाणुपिया ! णदे मणियारे जस्स ण इमेपासना गदा पुत्रवरणी चाउरकोणा जाय पडिरुवा ) हे देवानुप्रिय | मणिकार श्रेष्ठी नद को धन्यवाद है कि जिस की यह चतुष्कोण वाली तथा समतीर वाली नदा पुष्करिणी बहुत ही सुरम्य मनी है। ( जस्स ण पुरथिमिल्ले वणसढे चित्तसभा अणेगख भ० तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजी विथ फले-तएण तस्स दद्दूरस्स त अभिक्खण २ बहुजणस्स अतिए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म इमेयारूबे अन्भथिए ६ ) जिस के पूर्व दिशा सवन्धी वनपड मे अनेक सैकड खुभो से विराजित चित्र सभा बनी हुई है । उसी तरह की चारों arusों में चारों सभाएँ है । यावत् उस मणिकार नद श्रेष्ठी के मनुष्य माणो अन्नमन्नरस एवमाइक्सइ ४ ) नहा વાવમા જ્યારે રાજગૃહ નગરના લાકે આવીને સ્નાન કરતા, પાણી પીતા, તેમાથી પાણી ભરતા ત્યારે તેઓ પરસ્પર આ પ્રમાણે વાતચીત કરવા માડતા, સભાષણે કરવા માડતા, પ્રજ્ઞાપના मने अइया ४२वा भाडता है ( धन्नेर्ण देवालिया । णदे मणियारे जस्सण इमेयारुवा नदी पुक्सरणी चाउकोणा जाव पडिरूत्रा ) हे देवानुप्रिय ! भशिअर શ્રેષ્ઠિ નન્દને ધન્યવાદ છે કારણ કે આ ચાર ખૂણાવાળી તેમજ સરખા કિનારા बाजी नहीं वाव हुन रभ्य जधावी छे ( जस्सण पुरथिमिल्के वणव डे चित्तसभाअणेग सभ० तहेव चित्तारि सहाओ जात्र जम्मजीवियफले - तरण तस्स ददुररस त अभिक्खण २ बहुजणस्स अतिए एयमट्ठ सोचा णिसम्म इमेयावे अज्झथिए ६ ) वावना पूत्र हिशाना वनष उभा से अ थालसाओथी શેલતી ચિત્રસભા બનાવી છે આ પ્રમાણે ચારે ચાર વનડામા ચાર સભાએ તૈયાર કરાવડાવી છે. ખરેખર તે રણિકાર નદ શેઠને મનુષ્ય જન્મ અને જીવન
SR No.009329
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1120
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size34 MB
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