SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 723
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगारधर्मामुतणीटीका अ ३ जिनदत्त - सागरदत्तचरित्रम् ७०५ 'जाव जलंने' यातैजसा ज्वलति सूर्यभ्युद्गते सति 'जेणेव' यत्रैत्र 'मे' तद् बनमयूर्या अण्डकं रक्षिनमस्ति 'तेणेत्र' तत्रैवोपागच्छति, उनागत्य च 'तंसि' तस्मिन् वनमयूर्या अंड के 'संकिए' शंकितः - अण्डकविषये शङ्कावान् इदमण्ड पकावस्थां प्राप्स्यति नवा इति 'कविए' काङ्क्षितः - फलाऽऽकाङ्क्षायुक्तः- ::- अस्मादण्डकात् कदा मयूरगावकः समुत्पत्स्यते इति, 'वितिमिच्छासमावन्ने' विचिकित्सा समापन्नः - फलं प्रति संदेहयुक्तः इतः समुद्भूतेऽपि मनूरशावके तेन मम क्रीडारूपं फलं किमुपविष्यति न वा इत्येव फलं प्रति संशयापन्नः, 'भेय समावन्ने' भेदसमापन्नः मते द्वैधीभावं प्राप्तः, अम्मादण्ड काज्जातो मग्रूरपोनो शित होने पर जहाँ उस वन मयूरी का अंडक रखा था वहां गया (उत्रागच्छिता तं मऊ अंडयंमि संकिने वितिगच्छाम सावन्ने भेयसमान्ने कन्तुमसमाल्ने विन्नं ममं एत्थ किलावणमकरी पोयए भFor उदाहुणो भविस्सह तिकट्टु ) वहां जाकर वह उस मयूरी के अंडे के विषय में शंकित हो गया -- यह अंडा पक्वावस्था को प्राप्त होगा या नहीं इस प्रकार का उसे संदेह हुआ-- कांक्षित हो गया- -इस अंडे से कब मयूरी शावक उत्पन्न होगा इस प्रकार के फलके विषय में वह आकांक्षा युक्त बन गया - विचिकित्सा समापन्न हो गया- इससे मयूर पोतक होने पर भी उस से मुझे क्रीडा रूप फल प्राप्त होगा कि नही होगा - इस प्रकार वह फल में संशयापन्न हो गया-भेद समापन्न हो गया-इस अंडे से उत्पन्न हुआ मयुरी पोतरुजीवित रहेगा या नहीं रहेगा इस प्रकार से उसकी सत्ताके विषय में संकल्प विकल्प वाला वन कर वह मनि की द्विविधता से युक्त हो गया, कलुप समापन्न हो गया देसतु 'डु भूतु तु त्यां गयो (उत्रागच्छिना तंमि मऊरीभडयंसि संकि कंखि वितिमिच्छासमाचन्ने भेयसमावन्ने कलुससमावन्ने किन्न एत्थ fioraणमऊरी पोयए भविस्स उदाहु णो भविस्सत्तिक) साने त्या ठेझना ઈંડા માટે તેને શકાયુક્ત વિચારા થવા માડ્યા. કે આ ઇંડુ પરિપકવ થશે કે નહિ ? આ ઈંડ માંથી કયારે મેારનું ખચ્ચુ જન્મશે, આ રીતે તેના પરિણામની તેને જિજ્ઞાસા ઉત્પન્ન થઈ. આકાંક્ષા યુકત ખની ગયા અને વિચિકિત્સા યુક્ત બની ગયે. આમાથી મેરતું ખચ્ચું જન્મશે તે પણ તે અશ્રુ' અમારું મનેારંજન કરશે કે નહિ’? આ રીતે પરિણામમાં તેને સંશય ઉત્પન્ન થયા, ભેદ સમાપન્ન થઇ ગયા ઇડામાંથી ઢેલનુ અચ્ચુ જીવતું રહેશે કે નહિ ? આ રીતે તેની સત્તાના વિષે સકલ્પ વિકલ્પ કરતા તે મુઝવણમાં પડી ગયે, કલુષ યુક્ત થઇ ગયા, તેની મતિ મલીન થઈ ગઇ. એ જ વાતને
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy