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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ२ . १०वन्यस्थ विजयनसहडिबन्धनादिकम् ६३७ भोजनपिटक स्थापयति, स्थापयित्वा ''उल्लछेइ' उल्लाञ्छयनिनिर्लान्छितं करोति-उदघाटयतीत्यर्थः, उल्लान्छय 'भा पणाणि' भाजनानि% स्थाली कटोरकादीनि गृह्णाति, गृहीत्वा माजनानि 'धोवेड' धावति-पक्षा. लयति, धावयित्वा-पात्रपक्षालनानन्तरं हत्थमोय दलयह हस्तशौचं ददाति, श्रेष्ठिनो हस्तौ धावयति, हस्तशौचानन्तरं धन्य पार्थ राह तेन विपुलेनअशन-पान खाद्यस्वाधेन 'परिवेसइ' परिवेपयति श्रेष्ठिनो भोजनपात्रेऽगनादीनि निदधानीत्यर्थः 'तएणं' लदाखलु श्रेष्ठिभोजनसमये स विजयस्तस्करी धन्यं सार्थवाहमेवमवादीत-त्वं ग्वल देवानुप्रिय! मम एतस्माद विपुलाद् अशन-पान-खाध-स्वाधात् संविभागं कुरु । ततः खलु म धन्यः सार्थवाहस्तस्य वाक्यं श्रुत्वा विजयं तस्करमेवमवादीअपि 'आई' वाक्या पिडगं ठवेइ) जाकर उसने उस भोजन के डिब्बेको वहां रख दिया। (ठवित्ता उल्लछेइ) रखकर फिर उसने उस डिव्वेको खोला (उल्लंछिता भायगाई गेलइ गेह्नित्ता भायणाई धोवेइ धोविना हत्थसोयं दलयइ) खोलकर उसने थालो-कटोरी आदि को उठाया-उठा कर उन्हें धोया, (दलायत्ता घण्णं स त्यवाहं तेगं असणं४ परिवेसइ) धुलाकर उस सेठ धन्य सार्थवाह के लिये वह विविध आहार परोसा (तएणं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं वयासी) इमी बीच में उस विनय चौरने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा(तुमणं देवाणुपिया मम एयाो विउलाभो असणं४ संविभाग करेहि) हे देवगनुप्रिय ! तुम इम अशन, पान खाद्य, एवं स्वाधरूप चार प्रकार के आहार में से विभाग करो (तएणं से धन्ने मत्थवाहेविनयं तकरं एवं बधामो) विजय चौर की इस प्रकार बात सुनकर धन्य मार्थवाहने उस विनय चौर पिड़ग ठवेड) मने त्या पहचान लोनना माने. तेथे त्या भूटी सी (ठवित्ता उल्लछेड) त्या भूटीन तो धाय (उल्लछिन्ता भायणाइ गे: गोहत्ता भायणाई धोबड धोवित्ता हन्थमोयं दल यइ) उधाडीन. तेणे यानी मने વાડકીને લીધી અને લઈને પાણીથી ધોઈ. ત્યાર બાદ તેણે શેઠના બંને હાથ ધવ व्या. (दलविता धणं सत्यवाहं तेग विउलेणं असणं ४ परिवेसइ) धावअवीन तेथे धन्यसार्थ वाडने भाटे विविध andन माडा। पारस्या (तएण से विजयतक्करे धण्णं मत्थवाहं एवं बयासी) मे ४ वमते ते विन्य यो२ धन्यसार्थने ॥ प्रभारी यु--( तुमण्ण देवाणुप्पिया मम एमाओ विलाओ असणं ४ सविभागं करोहि) हेवानुप्रिय! तमे २मा अशन, पान माध भने स्वयं माहारमाथी भारी हिन्सा ४३१. (नएणं से धन्ने सान्यवाह विजयं तक्करं एवं वयासी) विन्य योनी l तनी बात मामणीने
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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