SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगाग्धावृतवर्षिणीटोका अ.१ ५. ४५ मेघमुनि प्रति भगवदुपदेश. निश्चयः सामान्य ज्ञानोत्तराल विशेष निश्चयायविचारणास्पः, जागंणम् अन्वेषण यथावरिथनम्वरूपाक्षेत्रणमग वेश्णय मागानन्तरयुपलरम्य स्वरूपस्य मर्वतो निर्णयाधिश्वविचारपरस्परालक्षण, पलचतुष्टयं कुर्वतः, 'सन्निपुब्वे जाई सरणे' संज्ञिपूर्व जातिम्मरण स्वस्य सनिपूर्वभवसम्मनिपज्ञान 'समुप्पन्ने' समुत्पन्नम् तेन-एनसर्थ गजभवनबन्धिवृत्तान्त सम्म सम्यक् 'अभिसमेड' अभिसमेनि-जानानि । तनः बल्ल समेषकुमारणेन समानता महावीरण 'संभारिपुलजाइमरणे' संगारिनपूर्वजातिस्लरणास्मारित पूजातिस्मरणं पूर्व भवज्ञान यस्य स तया, 'इनुपाणीय संवेणे हितुणातीत सवेगःछिगुगः पूर्यकाकापेक्षया, प्रापितः वेगा-विषयसपरिहारेण मोक्षाभिलाफ्लक्षणो यस्य सः तथा, 'आणंदमुपुन्नमुहे' आनन्दाश्रुपूर्णमुखःपरमकरण या भगवद्देशनाजनितपरमलोदात्रुसंभृतमुखः 'हरि सबसेणं' हर्षवशेन 'धाराह्यदेवपुरफपिच' धाराहनकदम्पुप्पमित्र जलधरधान्या आहेत-सिक्त मार्गण और गरेपण (करमाणस्स) करते हुए (सन्निपुब्वे जाइसरणे समु. प्पन्ने) अपने सजिभव का जातिम्मरण ज्ञान-अर्थात् पूर्वभव संबन्धी ज्ञान उत्पन्न हो गया। सो उसने सयमसम्म भिसमेड) अपने हस्ति भव सम्बन्धी वृत्तान्त को अच्छी तरह जान लिया । (तएणं से मेहेकुमारे समणेणं भगक्या सहामीणं संभारियपुवजाइसरणे दुगुणरणीय संवेगे प्राणदयंमुपुष्णमुहे हरिसबसेणं धाराय कंदवणुप्फपित्र समुरसुयरोमद लमणं भगवं वंदइ नसइ) इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर के द्वारा जिसे अपना पूर्वभव सत्यवी भन्न रसृत कराया गया है एसा वह मेषकुमार अय पूर्व कालकी अपेक्षा मोमामिलान रूप संवग भाव को द्विगुणित रूपमें प्राप्त र आनन्याभु से पूर्ण सुख बाला हो गया और हर्ष के वश से सब धाराहत दंवपुष्य की तरह रोमाञ्चित शरीर होकर पुब्वे जाइ सरणे समुप्पन्ने) पोताना स जिमयनु ति भ२९१ ज्ञान-गेटवे धूसर ज्ञान थयु तथा तेथे एयम खग्मं अजिसमेइ ) पोताना स्ति पर्यायनी गधी पात सारी शत aajी सीधी. (तरणं ले गहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेण संभारियपुव्यजाइसरण दुगुणाणीय संवेगे आणद यछु पुण्णमुहे हरिमनसेणं धाराह्यमनघुप्तदिन सरस्नुपरोपकूवे समणं अगवं वंदद नमवड ) 21 प्रमाणे भए मगवान महावी२५ मनायी तमना પૂર્વજન્મનું જ્ઞાન સ્મરણ કરાવવામાં આવ્યું છે, એવા તે મેઘદુમાર હવે પહેલેથી બમણા રૂપમાં મોક્ષાભિલાષરૂપ સ વેગ ભાવને મેળવીને આનદના આસુઓથી વહેતાં મે વાળા મેઘકુમાર હર્ષિત થતા કદ બ પુપની જેમ રોમાંચિત શરીરવાળા થઈને
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy