SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७०९ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका असू.१५ मेघमुनि प्रतिभगवपदुदेशः त्रीणि रात्रि दिवानि 'वेयणं' वेदनां 'वेएमाणे' वेदयन-अनुभवन् विहृत्य 'एये वाससयं' एक वर्षशतं परमायुः पालयित्वा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे राजगृहे नगरे श्रेणिकस्य राज्ञो धारिण्या देव्याःकुक्षौ कुमारतया 'पञ्चा. याए' प्रत्यायातः हस्ति भवात् समागतः ।।मू० ४४॥ । मूलम्-तएणं तुमं मेहा! आणुपुव्वेणं गन्भवासाओ नि क्खंते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, जइ जाव तुम मेहा! तिरिक्खजोणियभावमुवगएणं अपडिलद्धसंमत्तरयणपडिलंभेणं से पाये पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिए नो चेव णं निक्खित्ते किमंग पुण तुमं मेहा ! इयाणिं विपुलकुलसमुब्भवे निरुवहयसरी. समस्त शरीर को जला रही थी, सकल शरीर में तिल में तैल की तरह व्याप्त हो रही थी। तीत्र थी--दुःसह थी। श्रादि २। इस कारण तुम दाहज्वर से भी युक्त हो गये । (तएणं तुम मेहा । तं उज्जलं जाव दुर हियासं तिनि राइंदियाई वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउं पा लइत्ता इहेच जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रणो धारिणीए देवीए कुच्छिंसि कुमारत्ताए पच्चायाए) इसके बाद हे मेघ ! तुम उस उज्जवल यावत् दरध्यास वेदना को तीन दिन रात तक अनुभव करते हुए एक सौ वर्ष की उत्कृष्ट आयु समाप्त कर इसी जंवू. द्वीप नाम के द्वीप में भारत वर्ष में राजगृहनगर में श्रेणिक राजा और धारिणी देवीकी कुक्षि में हस्ति की पर्याय से पुत्र रूप से जन्मे ॥ मत्र "४४" जाव दाहवर्कतिए यावि विहरसि ) वेदना ती खोपाथी तभी तसनी म આખા શરીરમાં બળતરા થવા માંડી હતી. તમે દાહજવરથી પીડાઈ રહ્યા હતા. (तएणं तुम मेहा! तं उज्जल जाव दुरहियासं तिन्नि राइंदिया वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउ पालइत्ता इहेव जवुद्दीवे दीवे मारहेवासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रणो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पञ्चायाए) त्या२ पछी भेध ! ते स मने २ध्यास वहना ત્રણ દિવસ અને રાત અનુભવીને એક વર્ષનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય પૂરું કરીને એજ જંબુદ્વીપના ભારતવર્ષમાં રાજગૃહનગરમાં શ્રેણિક રાજા અને ધારિણી દેવીના ઉદરમાં હસ્તિના પર્યાયથી પુત્રરૂપે જન્મ પામ્યા. આ સૂત્ર “જ”
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy