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________________ ७:० ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ऋतुषु 'समइक्कंतेसु' समतिक्रान्तेषु व्यतीतेषु, ग्रीष्म कालसमये = ग्रीष्म ऋतु समये, जेष्ठ मूले मासे = ज्येष्ठमासे, 'पात्रसंघ मुट्ठिएण' पादपसंघर्ष समुत्थितेन वंशा रण्यादि संघर्षणजनितेन, 'जार संचहिएस' यावत् संवनितेषु अत्र यावच्छब्देन शुष्कतृणपत्रकच वरमारुतसं योगदीपितेन महाभयंकरेण हुतवहेन वनवज्वालासं प्रदीप्तेषु वनेषु धूमव्याप्तासु दिशासु. महावातवेगेन संवट्टितेषु छिन्नजालेषु, आपतत्सु, सकोटरवृक्षेषु कोटराभ्यन्तरे दह्यमानेषु वनप्रदेशेषु, भृङ्गारिका दीनक्रन्दितरवेषु वृक्षेषु यत्र गिरिवरेषु पक्षिसंघाः पिपासावशेन शिथिलीकृतपक्षाः वहिष्कृतनिङ्गा तालुकाः, व्यावृतमुत्वा भवन्ति तत्रैन्यादि उऊस ) पांच - प्रावृट्, वर्षांरात्र शरद्, हेमन्त, और वसन्त ये ऋतुएँ ( समइक्तेसु) व्यतीत हो चुकी थीं और ( गिम्हकालसमयसि ) गीष्मकाल का समय आ चुका था और जब ( जेट्टामूले मासे ) जेठे के महीने में ( पायवसंघससमुट्ठिएणं जाव संवट्टिएस मियपमुपक्खिसरीसवे दिसोदिसं विप्पलायमाणेसु ) वृक्षादिक के परस्पर संघर्षण से पैदा हुई अर्थात् पवन से कंपित हुए वंश आदि का परस्पर घर्षण से उत्पन्न हुई । यावत् । शब्द से शुष्क पत्र तृण आदि रूप कूडे में पवन के संयोग से दीपित हुई, ऐसी महा विकराल जगल की अग्नि से वन प्रज्वलित हो रहा था तथा दिशाएँ धूम से आच्छादित हो रही थीं एवं कोटरयुक्त - - पोले वृक्ष बात के वेग से संघटित होकर आग लगने से नीचे जमीन पर गिर गये थे तथा उनमें लगी --अग्नि ज्वालो जब शान्त हो गई थी । तथा वन के वृक्ष भृंगारिकों के दीन आनन्द शब्दों से युक्त हो रहे थे । तथा पर्वतों के ऊपर पिपासा के वश से कुलित हुआ पक्षी शिथिल पंख्याला मकटित तालु जिह्वा वाला तथा शरद्, हेमन्त भने वसन्त ऋतु ( समइक्कंतेसु ) मे मे उरीने पसार ग भने (गिस्ड्कालसमयंसि ) उनाजानी भोसभ भावी (जेडामुले मासे) २ महिनामां ( पायवसंघससमुट्टिएणं जाव सबट्टिएस તે વખતે मियपसुपक्खिसरिसवेसु दिसोदिसि विप्पलायमाणेसु ) भवनथी उचित थयेसा વાસ વગેરેના પરસ્પર ઘણુથી ઉદ્ભવેલા, “ચાવત્” શબ્દથી શુષ્ક તૃત્ર ઘાસ વગેરેમાં પવનના સહયાગથી પ્રજવલિત થયેલા વનના મહા વિકરાળ અગ્નિથી જ્યારે જંગલ સળગી ઉઠયું હતું તેમજ ચેામેર દિશાએ ધુમાડાથી ઢંકાઈ ગઈ હતી, પેાલાં વૃક્ષો પવનના સંઘર્ષણુથી સળગીને જમીનદોસ્ત થઈ ગયાં હતા. અને ધીમે ધીમે તેમાં સગતી અગ્નિજવાળા શાત થઈ ગઈ હતી, જંગલના વૃક્ષો ભૃંગારિકાના દીન— દનથી શબ્દ ચુત થઈ રહ્યા હતા, પતાના ઉપર તરસ્યાં અને વ્યાકુળ થયેલાં O
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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