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________________ ४८८ ज्ञाताधर्मकथाइस साध संमिलितो भूत्वा स्थितः । ततः खलु हे मेघ ! 'तुज्म' तव श्रयः मेतपः आध्यात्मिको यावत् मनोगतः संकल्प:=विचारः 'समुप्पज्जित्था' समुद्र पद्यत-समुत्पन्न:-'त' ततस्तस्मात् श्रेयः खल मम इदानों गढ़ाया महानद्याः 'दाहिणिलमि कलसि' दाक्षिणात्ये कले दक्षिणम्यां दिशि भवे-तटे विन्ध्यगिरिपादमृले विन्ध्याचलसमीपे, 'दवग्गिसंताणकारणट्टा' दावाग्नि मत्राणकारणार्थ दावाग्नेः चनाग्नितः, संत्राण संरक्षण' तदेव कोरण = निमित्तं तदर्थ स्वकेन यूथेन साध महइमहालयं' महातिमहत् अत्यन्तं विशालं, महई' अस्य संस्कृत-'महाति' इति, अतिमहत इत्यस्मिन्नर्थे 'महालयं' इत्यस्य संस्कृत-महत्' इति । मण्डलं गोलाकार निरुपद्रवस्थान निर्मातुं वृक्षादीन् 'घाइत्तए' उपहन्तु-त्रोटयितु धातूनामनेकार्थत्वात्, इतिकृत्वामनसि निधाय, एवं 'म पेहेसि' स प्रेक्षसे-विचारयसि, संपेहिना विचार्य सुखं सुखेन विहरसि । ततःखलु त्वं हे मेघ ! अन्यदा कदाचित् 'पहमे पाउस सि' मिलजुल कर बैठ गये। (तएणं तुज्झमेहा ! अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था) इसके बाद हे मेघ ! तुम्हें इस प्रकार का यह मनो. गत संकल्प उत्पन्न हुआ (तं से यं खलु मम इयाणि गंगाए महानईए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमले दवाग्गिसंताणकारणहा एएणं गृहेण महहमहालयं मंडलं घाइत्तए त्तिक एव संपेहेसि) कि इस समय गंगा महा नदी के दक्षिण दिशावर्ती तटपर विन्ध्यगिरि के पास दावाग्नि से रक्षा पाने के निमित्त अपने यूथ के साथ महातिमहत एक गोलाकार निरुपद्रव स्थान बनाने के लिये वृक्ष आदि का उखडवाना मुझे अयम्कर हैं। (संपेहित्ता मुहं सुहेणं विहरसि) इस प्रकार का विचार कर तुम वहां ओनंद के साथ रहने लगे। (तरण तुम मेहा ! अन्नया कथाह पढमपाउसंसि ) इसके बाद हे मेध ! तुमने किसी समय जब हावामिना मयथी से ज्याये ॥ भणीन मेसी गया. (तएण तुझं मेहा ! अय. मेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था ) त्या२ मा हे भा तभने २मा प्रभारी मनोगत सं४८५ हलव्या. ( त सेय खलु मम इयोणि गगाए महानईए दाहिणिल्लसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दावारिगसंताणकारणहासएणं जूहेणं महइमहालय मंडलं घाइत्तएत्तिकईएवं संपेहेसि) सत्यारे गामडा नहीनाक्षि हिशा त२५ना કિનારા ઉપર વિધ્યાગિરિની પાસે દાવાગ્નિથી રક્ષણ પામવા માટે પિતાના યુથની સાથે ખૂબ વિશાળ એક ગોળ આકારનું નિરુપદ્રવસ્થાન બનાવવા માટે વૃક્ષો વગેરે उपायु साउँछ (सपोहितासह महेणं विहरसि) मा प्रभारी वियार ४शन भेध त्यां सुमेथी पाताना समय पसार ४२वा साया. (तएणं तुम मेहा ! अनया कायाह पहमपाउसंसि) त्या२ है भेध ! तमे 1 m प्रथम वाम
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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