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________________ अनगारधर्मामृतवर्पिणी टीका अ. सू. ४१ मेघमुनेह स्तिभववर्णनम् ४७९ नद्याः दक्षिणे कूले 'विंझगिरिपायमूले' विन्ध्यगिरिपादमूले-विध्यपर्वतसमीपे 'एमेणं' एकेन मत्तवर गन्धहस्तिना एकस्याः गजवरकरेणुकाया:-बरहस्तिन्याः कुक्षौ-गर्भ गजकलभक 'जणिए'-जनितः उत्पादित:-त्वं हस्तिनीगर्भे समुत्पन्न इति भावः। ततःरवलु सा 'गयकलभिया' गजकलभिका-बरहस्तिनी पूर्ण नवसु मासेषु वसंतमासे 'तुमं पयाया' त्वां पाजनयत् । ततःखलु हे मेघ ! त्वं गर्भवासात् 'विप्पमुक्के' विप्रमुक्तः निस्सृतः सन् गजकलभकश्चाप्यभवः त्वं हस्ति बालकः संजातः। कीदृशस्त्वमासीरित्याह-रतुप्पलरत्तम्मालए' रत्तोत्पल रक्तसुकुमारकः तत्र रक्तोत्पलं रक्तकमलं तद्वत् रक्तः रक्तशरीरः सुकुमारः सुकोमलयः कालं किच्चा इहेब जंबूद्दी वे २ भारहे बासे दाइिणभरहे गंगाए महानदीए दाहिणे कलेविंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तबर गंधहथिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयफलभए जणिए) पश्चात् १२०, वर्ष की अपनी उत्कृष्ट आय को समाप्त कर मन से दुःखित, देह से दुःखित, इन्द्रियों से दुःखित वने हुए तुम वहीं पर मर गये और मरकर इस मध्य जवूद्वीप में भारतवर्ष में, दक्षिणाधं भरत में, गगा महा नदी के तट पर विध्यगिरि के समीप एक मत्तवरगन्धहस्ती के द्वारा गजवरकरेणु का के गर्भ में गजकलभरूप से उत्पन्न हुए। (तएणं सा गजकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासंमि तुमं पयाया), जब ठीक नौमास का समय व्यतीत हो चुका-तब उस गज कलभीकाने वसंत के महिना मे तुम्हें जन्म दिया। (तए तुम मेहा। गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए याविहोत्था) इस तरह हे मेघ ! तुम गर्भवास से निकल कर हस्ती मासे कालंकिच्चा इहेब जंबहीवे २ भारहेवासे दाहिणभरहे गंगाए महानइए दाहिणे क्ले विज्ञगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहत्थिगा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए) त्या२ मा मेसो पाश (૧૨) વર્ષનું પિતાનું લાબુ આયુષ્ય ભોગવીને મન, દેહ અને ઈન્દ્રિયથી દુખિત થઈને તમે ત્યાંજ મરણ પામ્યા અને ત્યાર પછી આ મજબૂદ્વીપના દક્ષિણાર્ધ ભરતક્ષેત્રમાં મહાનદી ગંગાના કાંઠે વિંધ્યગિરિની પાસે એક મદમત્તવર ગન્ધ હાથી દ્વારા ગજવર કરેણુકા (હાથીણું) ના ગર્ભમાં હાથીના કલભ (બચ્ચા) ના રૂપે તમે उत्पन्न थया. (त एणं सा गयकलभिया णवई मासाणं वसंतमासंमि तुम पयाया) न्यारे पराम२ नवभार पूरा थया त्यारे ते १२ Eि (थिणी) ये वसत भासमां तभने सन्म माया. (त एणं तुम मेहा गम्भवासाओ विप्प मुक्के समाणे गयकलभए याविहोत्था) प्रमाणे म पासमाथी भुत यधने
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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