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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ. १ सू. ४१ मेघमुनेहन्तिभववर्णनम ७७ त्वमासातवापागच्छात, उपागत्य त्वा तीक्ष्णैः दन्तमुशलेः त्रिकृत्वः त्रिवारं पिट्टओ' पृष्ठतः पृष्ठप्रदेशे 'उच्छु भइ' अपक्षिपति प्रहरति=विष्यति अपक्षिप्य, प्रहारं कृत्वा पूर्ववैरं निजाएइ' निर्यातयति-समापयति 'निज्जाइत्ता' निर्याय समाप्य हृष्टतुष्टः 'पाणियं पिबई' पानीयं पिबति 'पिवित्ता' पीत्वा यस्या एव दिशःप्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः ततःखलु हे मेघ ! तव शरीरे वेदना प्रादुर्भूता सा वेदना कीदृशीत्याह 'उजला उज्वला-नीवदुःखरूपतया जाज्वल्यमाना, विउला एकलशरीरव्याप्ता 'तिव्या' तीव्रा-दुःसहा, मूढ हो गया रुष्ट हो गया-अपना कुपित भाव उसने प्रकट कर दिया। नदी के प्रवाह की तरह धीरे२ उसका क्रोध वढ गया। अपना रौद्रस्वरूप उसने स्पष्ट कर दिया-और मिसमिसाता हुआ-क्रोधरूप अग्नि से जाज्व. ल्यमान होता हुआ-जहाँ तुम पहिले से ही कीचड में फसे थे वहा आया। (उवागच्छित्ता तुम्हं तिक्खेहि दंतमुसले हिं, तिक्खुत्तो पिट्टओ उच्छुभह) आकर उसने तुम पर तीन वार तीक्ष्णदंतरूपमुसल के महारों से पीछे के भाग में प्रहारकिया (उच्छुभित्ता पुत्ववेरंनिजाएइ) महार करके उसने अपना पूर्वका वैर लिया (निजाइत्ता हतुढे पाणियं पिवइ) इस प्रकार अपने पूर्व के वैर का बदला लेने पर वह विशेष आनन्द मग्ग बन गया और फिर उसने शांति के साथ वहां पानी पिया (पिवित्ता जामेवदिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए) पानी पी कर वह जिस दिशा की और से आया था उसी तरफ वापिस चला गया। (तएणं तवमेहा! सरीरगंसि. वेयणा पाउभवित्था) बाद में हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में बडी भारी वेदना સ્મૃતિ થતાં જ તે જલદી કે ધાવિષ્ટ અને રુષ્ટ થઈ ગયું. પિતાનો ક્રોધાવેશ તેણે પ્રકટ કર્યો. નીના પ્રવાહની જેમ તેને ક્રોધ વધી ગયે. પિતાનું ક્રૂર સ્વરૂપ બતાવતાં વીફરીને કેધરૂપી અગ્નિની જવાળાઓથી સળગતું વયાં તમે કાદવમાં ખૂપાએલા डता त्या माव्यु. ( उवागच्छित्ता तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहि, तिक्खा पिओ उच्छभइ) मावाने त्र मत तभा पाछन मामi dley तथा भूसना प्राध्या. (उच्छुभित्ता पुबवेरं निज्जाएइ) प्रहार ४शन तेरे पातानु पाडसानु ३२ वाज्यु. (निज्जाइत्ता हत पाणियं पिबइ) 20 प्रभारे ३२ વાળીને તે સવિશેષ આનંદિત થઈ ગયું, અને ત્યાર બાદ તેણે સુખેથી પાણી પીધું पिवित्तो जामेव दिसिं पउन्भूए तामेव दिसि पडिगए) पाणी पीधा मा २ त२५थी ते माव्युतु ते त२३ पा गयु. (तएणं तव मेहा ! सरीरगंसी वेयणा पाउन्भवित्था) त्या२ मा भेध ! तभारा शरीरमा अत्यन्त वना
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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